गाँधी श्रेष्ठ संचारक या मास कम्युनिकेटर!

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- ऋतुराजसिंह चौहा न

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विख्यात मास कम्युनिकेटर मार्शल मैकलूहान ने कहा कि माध्यम ही संदेश है। इस संदेश को उन्होंने कभी गर्म कहा तो कभी संदेश को ही सर्वोपरि बताया। उनके बाद के संचार विशेषज्ञों ने जन आवश्यकता की इस प्रक्रिया पर काफी काम किया। लेकिन भारत के संदर्भ में एक व्यक्ति ऐसा हुआ, जो जनमत बनाने और एक विचार को देश में प्रसारित करने में सफल रहा।

आजादी का मसीहा, अहिंसा का पुजारी जो समाजवाद की अवधारणा नहीं जानता था। ऐसा व्यक्तित्व जिसने किसी सिद्धांत को नहीं बनाया लेकिन दुनिया ने उनके विचारों और मान्यताओं को एक महत्वपूर्ण सूचना माना। दुनिया की तमाम अवधारणाओं में जिनकी कई विषयों पर अवधारणा शिक्षा पद्धति में सम्मिलित हो गई।

वहीं सत्य आधारित दुनिया के लिए जनता को जागृत करने वाले महात्मा गाँधी एक उच्च कोटि के संचालक थे। जनमत बनाने वाले आज के अखबार जिस तरह संपादकीय और विचारों की श्रृंखला पाठकों के सामने पेश कर रहे हैं, यह अवधारणा नई नहीं है सिर्फ इनके लक्ष्य बदल गए हैं। ब्रांड एम्बेसेडर और आईकॉन जैसी नई बातें संदेश के संदर्भ में पुरानी हैं। आजादी, सत्याग्रह और गाँधी के साथ एक शब्द बड़ी शक्ति बनकर उभरा, वह था-पत्रकारिता।

गाँधीजी ने उस समय सूचनाओं के माध्यम से देश में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया, जबकि माध्यमों की कमी से जनसंचार जूझ रहा था। उस समय जनसंचार की कोई अधोसंरचना नहीं थी। दुनिया में सूचनाओं का संप्रेषण एक जटिल प्रक्रिया थी। आज सूचनाओं को भेजने के लिए माध्यमों की कोई कमी नहीं है। वैश्वीकरण की अवधारणा और उसकी सर्वमान्यता के कारण दुनिया एक हो गई और इसमें संचार माध्यमों ने बड़ी अहम भूमिका निभाई है। इस दौर में उस समय की कल्पना की जानी चाहिए जबकि संसाधनों का अभाव था और आवश्यकताओं की कोई कमी नहीं थी।
गाँधीजी ने कहा कि मैं पत्रकारिता सिर्फ पत्रकारिता करने के लिए नहीं करता, मेरा लक्ष्य है सेवा करना। उन्होंने 2 जुलाई 1925 के 'यंग इंडिया' में लिखा- 'मेरा लक्ष्य धन कमाना नहीं है। समाचार-पत्र एक सामाजिक संस्था है।


उस दौर में गाँधीजी ने कहा कि मैं पत्रकारिता सिर्फ पत्रकारिता करने के लिए नहीं करता, मेरा लक्ष्य है सेवा करना। उन्होंने 2 जुलाई 1925 के 'यंग इंडिया' में लिखा- 'मेरा लक्ष्य धन कमाना नहीं है। समाचार-पत्र एक सामाजिक संस्था है। पाठकों को शिक्षित करने में ही इसकी सफलता है। मैंने पत्रकारिता को पत्रकारिता के लिए नहीं, बल्कि अपने जीवन में एक मिशन के तौर पर लिया है। मेरा मिशन उदाहरणों द्वारा जनता को शिक्षित करना है। नीति वाचन, सेवा करना और सत्याग्रह के समान कोई अस्त्र नहीं है, जो सीधे ही अहिंसा तथा सत्य की उपसिद्धि है।

सूचना जगत स्टि ंग ऑपरेशन के साथ खोजी पत्रकारिता के साथ हाथ मिलाकर चल निकला है, जहाँ खबर में सच के साथ मिलावट की कोई कमी नहीं है। सच जो कि किसी रंगीन पुड़िया में बँधा हुआ है उसमें आदमी के मनोभावों के साथ खेलने की योग्यता के अलावा और कोई गुण नहीं है। सत्य के साथ त्रुटियों की भरमार है। आज संपादकीय जनमत निर्धारण और दिशा-निर्देशन जैसा कार्य नहीं कर रहे। जिनकी अपेक्षा की जाती है वे बाजार और सत्ता के सहयोगी हो गए हैं। वहीं गाँधीजी ने संपादकीय के साथ एक ऐसी नींव रखी, जो उन्हें दुनिया का अच्छा संपादक साबित करता है। वे एक ऐसे पत्रकार थे, जिनकी ग्रामीण और शहरी जनता पर एक साथ पकड़ थी। वे एक अच्छे सत्याग्रही होने के साथ एक उत्तम संचारक थे।

उनका कहना था कि पत्रकारिता लोगों की भावनाओं को समझने और उनकी भावनाओं को अभिव्यक्ति देना है। अभिव्यक्ति देने में सफल आदमी ही सफल संचारक हो सकता है। इस अवधारणा को आज संचार के सभी माध्यम और प्रकार भलीभाँति अपना रहे हैं। लेकिन आज प्रेस की आजादी और उसके आचरण पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। उससे किस प्रकार से सही सूचना की अपेक्षा की जा सकती है? इस पर गाँधीजी ने प्रेस को गैरजिम्मेदार और अशुद्ध माना कि उसमें ऐसे व्यक्ति की गलत तस्वीर पेश की जा रही है। सही और न्याय देखने वाले को सिर्फ गलतराह दिखाई जा रही है। आधुनिकता की चपेट में पत्रकारिता एक ऐसे मोड़ पर है जिसमें सही-गलत का भेद समाप्त हो गया है।
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