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गाँधीजी की नजर में आध्यात्मिक प्रबंधन

Webdunia
- डॉ. शशिकांत भट् ट

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' प्रकृति का शाश्वत नियम है कि वह नित उतना उपजाती है जितना हमें प्रतिदिन लगता है। यदि प्रत्येक मनुष्य आवश्यकता से अधिक न ले, तो दुनिया में गरीबी रहेगी ही नहीं, कोई भूख से नहीं मरेगा।'

भारत जग में आदिसभ्य गुरुदेश माना गया, जिसका राज प्रकृति प्रदत्त शाश्वत ज्ञान को आत्मसात करना रहा है। गाँधीजी ने भी उसे आत्मसात कर जगत गुरु का स्थान पाया है। वर्तमान पीढ़ी इस सत्य से अवगत न होने के कारण गाँधीजी का नाम आते ही 'हमारे अँगने में तुम्हारा क्या काम है' तर्ज पर छिटकने लगती है। वह 'सादा जीवन उच्च विचार' के बजाए 'उच्च जीवन सादा विचार' में विश्वास करती है। गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा बागवानी से प्रारंभ होकर आत्मनिर्भरता के मार्ग को प्रशस्त कर सबको 'रोटी, कपड़ा व आसरा' मिले, ऐसे समाज की बुनियाद डालती है।

आजादी के बाद गाँधीजी की मृत्यु के साथ ही हमने उन्हें सत्ता प्राप्ति का साधन मात्र मानकर 'साध्य' के रूप में सदा के लिए बिदा करने का भ्रम पाल लिया। हम यह भूल गए कि मरता सिर्फ शरीर है, विचार व आत्मा अमर रहती है। बदलती दुनिया में नए विचार व जीवन पद्धति अपनाने कीहोड़ में हम भारतीय सांस्कृतिक समाज की बुनियाद ही हिलाने का प्रयास कर बैठे। दुनिया से सीखने, सिखाने की अकल लगाने के बजाए हम नकल में लग गए।

हम दिन शुरू करते हैं, हाय (मेरी ओर देखो, कैसा/कैसी लगता/लगती हूँ) से और अंत बाय बाय (आध्यात्मिक सुख से बिदा) से। हम अपने को मैनेजमेंट विशेषज्ञ मानते हैं, क्योंकि लाखों रुपए खर्च कर विदेशों में शिक्षण जो पाया है और दुनिया चलाने की कला व विज्ञान आता है। पश्चिम का सोच अपने स्थान पर गलत नहीं
सादा जीवन उच्च विचार
वर्तमान पीढ़ी इस सत्य से अवगत न होने के कारण गाँधीजी का नाम आते ही 'हमारे अँगने में तुम्हारा क्या काम है' तर्ज पर छिटकने लगती है। वह 'सादा जीवन उच्च विचार' के बजाए 'उच्च जीवन सादा विचार' में विश्वास करती है।


लगता पर सच भी नहीं क्योंकि वे भौतिकवादी संसार को चलाने की सभी चालबाजियों में पारंगत हो गए हैं, परंतु आध्यात्मिक सत्यों की ओर से आँख मूँद ली और यह भूल गए कि भौतिकतावादी जगत का एक अध्यात्मवादी नियंता भी है।

ऋषियों व संतों ने जताया और गाँधीजी ने भी समझा कि इस जग का एक महाप्रबंधक भी है, जिसके अति सरल परंतु शाश्वत सिद्धांत हैं, जिनसे यह सारा जगत अनादिकाल से चलायमान है। पवित्रता/ स्वच्छता उसका दूसरा नाम है, जो प्रकृति की गोद में पलती है। जल व वायु उसके साकाररूप हैं। दाना-पानी, पेड़-पौधे व फल-फूल उसके प्रसाद व प्रासाद (निवास) हैं। इन्हीं में ईश्वर के प्राण बसते हैं। मनुष्य उसके द्वारा नियुक्त उसका रखवाला है। प्रकृति उसका पालना है, जिसके प्रदूषण मात्र से वह मुरझा जाता है, अप्रसन्न हो जाता है। प्रकृति माँ जब रूठ जाती है, संसारसर्वनाश के मार्ग पर चल पड़ता है। अब आप ही गंभीरता से सोचिए कि हमारे जग का महाप्रबंधन हम किसे सौंपें व किनके निर्देशों का पालन करें।

इस जगत के आध्यात्मिक प्रबंधन के विचारों से अवगत होने पर ही गाँधीजी ने कहा, 'हम सब एक मायने में चोर हैं। जब हम वह ग्रहण कर लेते हैं, जिसकी हमें तत्काल आवश्यकता नहीं होती, हम उसे दूसरों से चुराते हैं। प्रकृति का शाश्वत नियम है कि वह नित उतना उपजाती है जितना हमें प्रतिदिन लगता है। यदि प्रत्येक मनुष्य आवश्यकता से अधिक न ले, तो दुनिया में गरीबी रहेगी ही नहीं, कोई भूख से नहीं मरेगा। जब तक दूसरों को खाना व कपड़ा नहीं मिलता, आपको व मुझे संग्रह करने का अधिकार नहीं है।'

हम आज अनंत चाह की राह पर, चाह व आवश्यकता के बीच खाई को पाटे बिना भौतिक सुख प्राप्ति हेतु दौड़ रहे हैं, इस सत्य को भुलाकर कि भौतिक जीवन क्षण भंगुर है व ईश्वर ने हमें इस जग में किसी प्रयोजन से भेजा है। यदि हम पर्यावरण को पवित्र नहीं रख सकते, तो उसेप्रदूषित करने का अपराध न करें। पेड़ नहीं लगा सके तो उसे काटने का पाप न करें। कम से कम भौतिक आवश्यकताओं पर आधारित जीवन क्रम ही श्रेष्ठ जीवन जीने की कला में हमें पारंगत कराएगा।
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