क्या गाँधीजी अप्रासंगिक हो गए हैं?

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संदेशों को सुनकर उनके अनुसार आचरण करने की ईमानदारी समाप्त हो चुकी है। अब तो आदेशों को भी अनसुना कर देने की प्रवृत्ति ने पैर जमा लिए हैं। इसलिए महात्मा गाँधी के इस कथन को अप्रासंगिक ठहरा देने वाले बहुत से होंगे कि 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। 'लेकिन क्या वाकई गाँधीजी अप्रासंगिक हो गए हैं? यदि परिस्थितियों का तुलनात्मक अध्ययन करें तो गाँधीजी की प्रासंगिकता बढ़ी है।

इसे इस तरह भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि गाँधीजी की प्रासंगिकता अब उस वक्त से भी कई गुना अधिक है जब गाँधीजी हुए थे। भारतीय समाज में भारतीयता के ह्रास को व्यक्त करने के लिए इससे प्रभावी कथन ढूँढ पाना मुश्किल है। सदाचार, अपरिग्रह, मितव्ययिता, सादगी, समाज-प्रेम को भ्रष्टाचार, संपदा, फिजूलखर्ची, वैभव-विलासिता और द्वेष ने पछाड़ दिया है। चिंतन-मनन में तो बात यहाँ तक पहुँचती है कि यदि गाँधीजी होते तो वे भी इस स्थिति को बदलने में विफल रहते। क्या इसे भारतीयता की प्रशंसा समझी जाए या शर्म महसूस की जाए कि चरित्र पतन को हमने पूजने की गलती की?

आज गाँधी जयंती है। पुण्यतिथि पहले गुजर चुकी है। गाँधी प्रतिमाओं और उनकी तस्वीरों को पिछली पुण्यतिथि के बाद धोने-पोंछने का यह पहला अवसर आया है। प्रत्येक वर्ष ऐसा ही होता है, जयंती और पुण्यतिथि के बीच की अवधि में गाँधीजी के साथ कोई नहीं होता है। कड़वी बात तो यह है कि बचे-खुचे गाँधीवादी भी नहीं।

वे गाँधीजी का साथ दे भी नहीं सकते हैं क्योंकि जरूरतों और परिस्थितियों ने उन्हें भी सिखा दिया है कि गाँधी बनने से केवल प्रताड़ना मिल सकती है, संपदा, संपत्ति नहीं। वैचारिक धरातल मेंयह खोखलापन एक दिन या एक माह या एक वर्ष में नहीं आ गया। जान-बूझकर धीरे-धीरे और योजनाबद्ध ढंग से गाँधी सिद्धांतों को मिटाया जा रहा है क्योंकि यह मौजूदा स्वार्थों में सबसे बड़े बाधक हैं। गाँधी सिद्धांतों को मिटाने की इस गतिविधि को देखा नहीं गया, ऐसा नहीं है। सब चुप हैं क्योंकि अपना-अपना लाभ सभी को चुप रहने के लिए प्रेरित कर रहा है।

आमतौर पर जन्मदिन या जयंती के दिन आस्था के फूल अर्पित करने की परंपरा है। इस दिन कड़वी बातों को कहने का रिवाज नहीं है। यदि इस रिवाज को तोड़ा जा रहा है, तो मजबूरी के दबाव को समझे जाने की आवश्यकता है। यह राष्ट्र नेताओं को महात्मा गाँधी के सिद्धांतों पर कीचड़ उछालने की अनुमति कैसे दे रहा है, क्यों दे रहा है? यह कैसी सहिष्णुता है जो राष्ट्र की बुनियादी विचारधारा को मटियामेट करने पर आमादा है?

कहते हैं कि जो राष्ट्र अपने चरित्र की रक्षा करने में सक्षम नहीं है, उसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता है। क्या परमाणु बम भारतीयता की रक्षा कर पाएगा? दरअसल, यह भुला दिया गया है कि पहले विश्वास बनता है, फिर श्रद्धा कायम होती है। किसी ने अपनी जय-जयकार करवाने के लिए क्रम उलट दिया और उल्टी परंपरा बन गई। अब विश्वास हो या नहीं हो, श्रद्धा का प्रदर्शन जोर-शोर से किया जाता है। गाँधीजी भी श्रद्धा के इसी प्रदर्शन के शिकार हुए हैं।

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उनके सिद्धांतों में किसी को विश्वास रहा है या नहीं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जयंती और पुण्यतिथि पर उनकी कसमें खाकर वाहवाही जरूर लूटी जा रही है। गाँधीजी के विचार बेचने की एक वस्तु बनकर रह गए हैं। वे छपे शब्दों से अधिक कुछ नहीं हैं।

इसलिए ही गाँधीजी की जरूरत आज पहले से कहीं अधिक है। इस जरूरत को पूरा करने की सामर्थ्य वाला व्यक्तित्व दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। हर कोई चाहता है कि आदर्श और मूल्य इतिहास में बने रहें और इतिहास को वह पूजता भी रहेगा। परंतु अपने वर्तमान को वह इस इतिहास से बचाकर रखना चाहता है।

अपने लालच की रक्षा में वह गाँधी की रोज हत्या कर रहा है, पल-पल उन्हें मार रहा है और राष्ट्र भीड़ की तरह तमाशबीन बनकर चुपचाप उसे देख रहा है। शायद कल उनमें से किसी को यही करना पड़े! अपने हितों की विरोधी चीजों को इतिहास में बदल देने में भारतीयता आजादी के बाद माहिर हो चुकी है। वर्तमान और इतिहास की इस लड़ाई में वर्तमान ही जीतता आ रहा है क्योंकि इतिहास की तरफ से लड़ने वाले शेष नहीं हैं।

आज गाँधी जयंती है। गाँधीजी की प्रतिमा के सामने आँख मूँदकर कुछ क्षण खड़े रहने वाले क्या यह पश्चाताप कर रहे होंगे कि वे गाँधीजी के बताए रास्तों पर क्यों नहीं चल रहे हैं? नहीं, वे यह कतई नहीं सोच रहे होंगे। तब वे मन ही मन क्या कह रहे होंगे? सोचिए और उस पर मनन कीजिए। गाँधी जयंती पर यही बड़ा काम होगा।

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