बापू के नाम पर लाखों की कलम

गाँधीजी के नाम पर हावी होता व्यवसाय

स्मृति आदित्य
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क्लासिक कलम बनाने वाली विख्यात कंपनी मोंट ब्लांक महात्मा गाँधी के दांडी मार्च से प्रेरित होकर एक विशेष कलम पेश कर रही है जिसकी कीमत करीब 14 लाख रुपए होगी। कैसी विडंबना है कि एक संत, जो अपने जीवन में आत्मशुद्धि के लिए बार- बार तकिए की जगह पटिए पर सोता था। एक संत, अपने हाथ के काते सूत के मात्र एक कपड़े से तन को ढँकता था। एक संत, जिसने अपने पुत्र को विलायत इसलिए नहीं भेजा कि उनकी अंतरात्मा यह कहती थी कि लोग ये न कहें कि बापू ने देशसेवा का मूल्य हासिल कर लिया अपने बच्चों को लाभ पहुँचाकर! आज उसी सादगी के सच्चे सपूत के नाम पर व्यावसायिकता का खेल रचा जा रहा है।

वे बापू, जो जली हुई माचिस की तीली भी इसलिए संभाल कर रखते थे कि देश को किफायत का संदेश दे सकें आज बाजारीकरण की प्रतिस्पर्धा में फिजूलखर्च का बहाना बन गए हैं। वे बापू जो जीवन भर कागज के पुर्जों के दोनों तरफ निहायत ही सामान्य कलम या बची हुई पेंसिल से लिखते रहें, जिन्होंने विश्व को सादगी से जीवन जीने का पाठ पढ़ाया ।

इस व्यवसायीकरण के दौर में उनके नाम ऐसा पेन निर्मित हुआ है जो शुद्ध सोने का होगा जो निश्चित ही किसी गरीब को देखने को भी नसीब नहीं होगा सिर्फ कुछ अमीर ही इसके स्पर्श से यह अहसास प्राप्त कर मान लेंगे कि शायद चरखे के धागे से बुना कपड़ा भी इतना ही स्निग्ध हो।

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विडंबना की यह बड़ी ही लज्जास्पद अति है कि गाँधीजी जो नहीं चाहते थे वह सब हो रहा है और उन्हीं के नाम पर हो रहा है। लगातार हो रहा है। देश के हर बड़े शहर में महात्मा गाँधी मार्ग है जो आज एम.जी. रोड़ के नाम से जाना जाता है। लेकिन यही एम.जी. रोड़ आज शहर के सबसे मँहगे इलाकों के रूप में जाने जाते है यहाँ विश्वस्तरीय फैशनेबल कपड़ों और महँगी सामग्री से सुसज्जित दूधिया रोशनी में नहाए बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल दिखाई देते है।

आज का 'गाँधीगिरी कल्चर' भला उस पवित्र गाँधीवाद को कैसे समझ सकेगा जिनके लिए गाँधीजी या तो 'दो अक्टूबर' की छुट्‍टी है या खादी में 20 प्रतिशत की छूट है या फूहड़ 'एसएमएस' का विषय है या कोई कमजोर मुहावरा( मजबूरी का नाम...) या सिर्फ 'फैशनेबल' एम.जी. रोड? आजकल तो कई लोग गाँधी जयंती को 'ड्राय डे' के रूप में ज्यादा याद रखते हैं।

गलती किसी की नहीं है बल्कि गलती उन लोगों की है, जिनके मुख से गाँधी-आदर्श हम तक पहुँचे। खुद उनकी कथनी और करनी में भेद था। इसीलिए गाँधीजी हमारी नई पीढ़ी के लिए वैसे गौरव का विषय नहीं बन सकें जैसे बनना चाहिए था। एक विदेशी परिचित कार्ल एंडरसन ने जब भारत प्रवास के दौरान यह कहा था कि गाँधी को आप अभी नहीं समझेंगे जब यह विदेशों से होकर आपके पास पहुँचेगा तब आपकी समझ में आएगा कि गाँधी क्या थे। तब मेरा पूरा परिवार यह सुनकर सन्न रह गया था।

आज यह पढ़ते हुए कि व्हाइट गोल्ड से बनी कीमती 241 कलमें विश्व भर में उपलब्ध होगी। 18 कैरेट के सोने की निब इसमें लगी होगी जिस पर लाठी पकड़े बापू की छवि अंकित होगी तो मन फिर विचलित सा हो गया। बापू के नाम पर व्यावसायिकता हो सकती है, अगर गरीबों को इसका समुचित लाभ मिले तो यकीनन हो सकती है; मगर क्या यह जरूरी नहीं कि व्यवसाय की उस गुणवत्ता, ईमानदारी और सादगी को बनाए रखा जाए जिसके बापू हिमायती थे।

उनके आदर्श, उनके सिद्धांत, उनके मूल्य और उनका चरित्र इन सबकी 'आड़' में 'खिलवाड़' ना बनें यह प्रयास कौन करेगा? ‍जिस तरह सिर्फ 'खादी' पहन कर गाँधीवादी नहीं हो सकते उसी तरह महँगी कलम भी गाँधी-प्रेमी या गाँधी-समर्थक होने का सबूत नहीं हो सकती। कम से कम बापू की आत्मा तो इस 'सुप्रयास' से उदास ही होगी। आप क्या सोचते हैं?

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