गणपति बप्पा मोर्‌या

श्री गणेश चतुर्थी

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- डॉ. नारायण तिवारी

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पंचदेवों में सम्मिलित गणाध्यक्ष, पार्वतीनंदन भगवान श्री गणेश के जन्म-प्रसंग की भी कई अलग-अलग रोचक और प्रेरक कथाएँ उपलब्ध हैं। 10 हजार वर्षों के सुखद सान्निध्य के बाद भी जब भगवती पार्वती को संतान लाभ नहीं हुआ तो उन्होंने एक बार बड़े निकट क्षणों में भूतभावन आशुतोष भगवान शिव से अपनी समस्या निवेदित की।

भगवान ने लोक-मर्यादा, जनशिक्षण, परंपरा-निर्वहन एवं धर्मानुशासन बनाए रखने के लिए सर्वसमर्थ होकर भी उन्हें पुत्र प्राप्ति के लिए भगवान श्रीकृष्ण को प्रसन्न कर उनसे वर माँगने की सलाह दी। कथा है कि सर्वेश्वरी भगवती पार्वती ने अपने योग्य पुत्र की प्राप्ति के लिए भगवान श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए कठोर अनुष्ठान एवं तप किया।

लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न हो गए व देवी पार्वती से वर माँगने को कहा। भगवान श्रीकृष्ण को साक्षात देख देवी तो चकित रह गईं और उनका मातृभाव जागृत होकर बोला, ' मुझे आपके जैसा ही पुत्र चाहिए।' यहाँ भी नटवर नंदकिशोर अपनी भुवन मोहिनी छबि काजादू दिखाने से नहीं चूके और बड़े भोले बनकर भगवती से कहा, ' यह वरदान देना असंभव है, क्योंकि सृष्टि में मेरे जैसा तो बस मैं ही हूँ, कोई दूसरा कैसे हो सकता है। पर मैं आपकी निष्ठा और स्नेह से प्रसन्न होकर स्वयं आपके गर्भ से जन्म लेकर आपका पुत्र होकर जन्मूँगा।' भगवती तो इस अलभ्य दुर्लभ वरदान को प्राप्त कर धन्य-धन्य हो गईं।
  पंचदेवों में सम्मिलित गणाध्यक्ष, पार्वतीनंदन भगवान श्री गणेश के जन्म-प्रसंग की भी कई अलग-अलग रोचक और प्रेरक कथाएँ उपलब्ध हैं। 10 हजार वर्षों के सुखद सान्निध्य के बाद भी जब भगवती पार्वती को संतान लाभ नहीं हुआ।      


कालक्रम से भगवती के यहाँ स्वयं श्रीकृष्ण ने गणपति के रूप में जन्म लिया। उनके सौंदर्य की कौन बात कहे। भगवान शनि को शाप है कि वे जिसे दृष्टि भरकर देखते, उसका सिर कटकर गिर पड़ता है।

भगवान शंकर और देवी पार्वती के इस अलौकिक सुंदर पुत्र की चर्चा त्रिलोक में थी अतः शनिदेव भी उनका दर्शन करने पधारे, पर शापवश उन्होंने श्रीगणेश के दर्शन से खुद को दूर रखा। पर होता तो वही है जो श्रीहरि ने नियत कर रखा है, इसीलिए तो उसे नियति कहते हैं।

देवी पार्वती के बहुत आग्रह पर शनिदेव ने उनके बेटे के दर्शन किए और अमोघ शाप की वजह से बेटे का सिर कटकर जमीन पर गिर गया। इस अनहोनी से देवी तो चीत्कार कर उठीं। तब भगवान शंकर ने देवताओं, ऋषियों, यक्षों, गंधर्वों, सभी की प्रार्थना पर हाथी का सिर भगवान गणपति के धड़ से जोड़कर उन्हें ' गजानन' नाम दिया। इस स्वरूप से भी अत्यंत मोहक एवं देवताओं में प्रथम पूज्य का पद प्रदान किया, तभी भगवती संतुष्ट हुईं।

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