गणपति रहस्य

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- डॉ. मनस्वी श्रीविद्यालंका र

अधिकांशतः यह पूछा जाता है कि भारतवर्ष में अनेक देवी-देवताओं का प्रचलन क्यों है। प्रत्येक देवी-देवता की मंत्र, साधना, पूजा पद्धति, तीर्थ महत्व इत्यादि-इत्यादि में इतनी विविधता क्यों है? प्रत्येक का मंत्र दूसरे से अलग क्यों है ? इतनी विविधता के कारण क्या हैं? आपसी मतभेद क्यों हैं? इसी तरह के अनेक प्रश्न खड़े किए जाते हैं।

वस्तुतः उपरोक्त अथवा इस तरह के अन्य जितने भी प्रश्न हैं अथवा विभिन्न प्रकार की जो शंकाएँ उत्पन्न होती हैं, उनका मूलभूत एक ही उत्तर है- संपूर्ण जानकारी का अभाव।

उक्त वर्णित प्रश्नों के उत्तर इन प्रश्नों में ही अंतर्निहित हैं। हमें अपनी समझ के दृष्टिकोण को विस्तार देना पड़ेगा, तत्पश्चात यह गुत्थी स्वयं ही सुलझ जाएगी।

' एकोऽहं बहुस्यामः' ब्रह्म ने इच्छा व्यक्त की कि मैं एक हूँ, अनेक रूपों में विस्तार प्राप्त करूँ। ब्रह्म की इस इच्छा के अंतर्गत ही ब्रह्म ने विस्तार प्राप्त किया।

ब्रह्म के इस विभिन्न विस्तार से अनगिनत विभिन्नताएँ व्याप्त हुइर्ं। प्रत्येक जीव, प्रत्येक कण की अपनी एक प्रकृति निरूपित हुई, जो अपनी प्रकृति के अनुसार ही कार्य करते हैं। 'प्रकृति यान्ति भूतानि' अर्थात समस्त जीव अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार ही कार्य में प्रवृत्त होते हैं।

अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह विश्व प्रपंच किन-किन तत्वों का विपरिणाम है। यह विश्व पाँच महाभूतों के प्रपंच का ही विपरिणाम है। ये तत्व हैं (1) पृथ्वी, (2) अग्नि, (3) वायु, (4) जल और (5) आकाश।

ये पंच महाभूत तीन गुणों से समुद्भूत हैं। ये तीन गुण हैं- (1) सात्विक, (2) तामसिक और (3) राजसिक।

इस विषय को विस्तार न देते हुए हम इतना समझ लें कि :-

सात्विक (विशुद्ध सात्विक गुण प्रधान) आकाश तत्व है।

रजोगुण (विशुद्ध रजोगुण प्रधान) अग्नि तत्व है।

तमोगुण (विशुद्ध तमोगुण प्रधान) पृथ्वी तत्व है।

अब दो परिस्थितियाँ बचती हैं अर्थात तीन पृथक-पृथक विशुद्ध तत्व के साथ इन तीन तत्वों का एक-दूसरे के साथ मिश्रण अर्थात सत्व+रज का मिश्रण और रजोगुण और तमोगुण का मिश्रण।

सत्व एवं रजोगुण के मिश्रण का विपरिणाम वायु तत्व है।

रजोगुण और तमोगुण के मिश्रण का विपरिणाम है जल तत्व।

इस तरह पाँच तत्वों- पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि और जल- से समुद्भूत ही समस्त जीवों के शरीर हैं। जो जिस-जिस तत्व से संबंधित है, उनके अनुसार ही कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, इसलिए उपासना करने वाले जीवों को अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करने के लिए ब्रह्म के उस रूप की ही कल्पना होती है, जिस तत्व से उसका संबंध है।

आकाशस्याधिपो विष्णुरग्नेश्चैव महेश्वरी।
वायोः सूर्यः क्षितेरीशो जीवनस्य गणाधिपः ॥

अर्थात आकाश तत्व के अधिष्ठाता विष्णु, अग्नि तत्व की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा, वायु तत्व के अधिष्ठाता सूर्य, पृथ्वी तत्व के अधिष्ठाता शिव और जल तत्व के अधिष्ठाता गणेश हैं।

प्राणियों को यह कैसे पता चले कि उनके लिए किसकी उपासना अभीष्ट फलदायिनी है?

जिस प्रकार रोगी को केवल रोग की जानकारी होती है, निदान हेतु औषधि की नहीं। निदान हेतु उसे योग्य चिकित्सक का ही अवलंबन (सहारा) लेना होता है। चिकित्सक जितना योग्य होगा निदान उतना शीघ्र होगा। उपचार भी इसी तरह शीघ्र ही निदान पा सकेगा। ठीक इसी प्रकार सुयोग्य गुरु साधक की प्रकृति का परीक्षण करके उपास्य का पथ निर्देशित करता है।

इसलिए ही तत्‌ तत्व-प्रधान प्रकृति-विशिष्ट साधकों के लिए तत्‌ देवतारूप ईश्वर की उपासना उपादेय है। ऋग्वेद में इस बात को विस्तार से समझाया गया है कि उपास्य के भेद साधक ही प्रकृति के अनुसार हैं, अंततोगत्वा तो वह स्वयं परब्रह्म ही हैं। इस संबंध में वेद कहते हैं :-

' अक्षण्वतः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवुः।'

अर्थात जिस प्रकार शरीर में आँख, नाक, कान आदि अंगों में तो समान रूप से अंग ही कहलाते हैं, पर मानसिक संवेगों में एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं, फिर भी वे एक शरीर विशेष के ही अंग है, किसी अन्य शरीर के नहीं। इसी तरह ब्रह्म की पंचमहाभूतात्मक प्रकृति के प्रत्येक तत्व में ब्रह्म ही विराजित हैं।

तन्त्र विज्ञान का कथन है कि ' देवं भूत्वादेवं यजेत्‌।' अर्थात देव बनकर ही देवता की पूजा करें। अतः आवश्यक है कि सर्वप्रथम हम में उस देवता का भाव उत्पन्न हो, फिर हम उस देवता की आराधना करें।

हममें वह भाव उत्पन्न हो इसके लिए आवश्यक है कि उस प्रतिमा में प्रतीकात्मक भाव उत्पन्न किया जाए। अतः प्रतिमा में प्रतिकात्मक भाव कल्पित किया जाता है। उस देवता के कल्पित-निदान स्वरूप को प्रथमतः अपने अंतर्जगत में खचित करना पड़ता है। इस हेतु ही पूजा के विभिन्न अंग जैसे ध्यान, आह्वान आदि का स्वांग रचित किया जाता है।

चूँकि प्रकृति में अनगिनत विभिन्नता परिलक्षित होती है, अतः तत्स्वरूप भिन्नता के नियंत्रणकर्ता स्वरूप का तत्संबंधी नामकरण किया गया है।

निष्पत्ति के रूप में कह सकते हैं कि हमारा अध्यात्म विज्ञान प्रकृतिजन्य विभेदों को अति सूक्ष्म रूप में भी चित्रित करने हेतु न केवल सक्षम है, अपितु उनमें निहित अतिसूक्ष्म रहस्य को भी व्याख्यायित करता है।

गणपति जल तत्व के अधिष्ठात्र देवता हैं। जल तत्व की प्रधानता से जीवन में सुख-समृद्धि-वैभव में सतत वृद्धि होती रहती है। जल तत्व में कमी की वजह से विभिन्न क्षेत्रों में विघ्न, बाधाएँ व कष्टों की प्राप्ति होती रहती है।

गणेश-स्तवन से अनेक प्रकार के कष्टों का निवारण संभव है। वेद, पुराण, स्मृति, उपनिषदों एवं संहिता ग्रंथों में इनके अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं।

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