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ॐकार स्वरूपा गणपति

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- प्रिया सुधीर शुक्ल

जय जय श्रीगणराज विद्या सुख दाता।
धन्य तुम्हारो दर्शन मेरा मन रमता ॥

प्रतिवर्षानुसार गौरी-सुत गणपति हमारे मध्य पूरे दस दिनों के लिए विराजमान रहेंगे। ये गिरिजानंदन ऐसे मेहमान हैं, जो हैं तो एक ही रूप परंतु सबके घरों में अलग-अलग स्वरूपों के साथ पधारते हैं। किसी मूर्ति में हाथ में लड्डू है तो किसी में सिर पर सुंदर पगड़ी है। किसी प्रतिमा में चूहे पर बैठे हैं तो किसी में आराम से पालथी मारे बैठे हैं। इन 'बप्पा मोरया' के आने की खुशी में बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सभी में एक जैसा उत्साह रहता है।

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अनेक नामों से विभूषित किए जाने वाले गणेशजी हर शुभ कार्य के पहले पूजे जाते हैं। ये ऐसे आराध्य हैं, जिनका आह्वान किए बगैर आप वास्तु पूजन, जनेऊ, विवाह, किसी व्रत का उद्यापन नहीं कर सकते। चमत्कार की बात तो यह है कि इनके पिता श्री महादेवजी का पूजन तथा शंकरजी के ही व्रत सोलह सोमवार का उद्यापन इनकी स्थापना के बाद ही संपन्न होता है। यहां तक कि कलयुग में महापूजा समझी जाने वाली श्री सत्यनारायण व्रत कथा में भी विनायक ही प्रथमतः पूजे जाते हैं।

गणपतिजी का सबसे विशिष्ट गुण इनका विघ्न-विनाशक होना है। इनकी जितनी भी स्तुति की जाए कम है। हम सुंदरता के कायल होते हैं। सुंदर चेहरों के पीछे दुनिया भागती है पर हमारे गणपतिजी की नाक हाथी की है। पेट बेडौल-सा है तथा सवारी करते भी हैं तो किसकी? चूहे की! इतनी सारी असामान्य बातों के बाद भी वे सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे दुःख देते नहीं, हरते हैं। क्या ये सब बातें मानव जीवन के लिए अनुकरणीय नहीं हैं।

उनकी नाक टेढ़ी है, इसीलिए वे वक्रतुंड हैं। उनका उदर बड़ा है, इसलिए वे लम्बोदर हैं। उनकी सवारी चूहा है, जाहिर है वे मूषकवाहन हैं। उनकी सूंड के पास एक दांत परिलक्षित होता है, इसलिए वे एकदंत भी हैं। वे सहज हैं, सरल हैं। वे जन-जन के प्रिय देवता हैं। उनका हर घर में आना शुभ है।

इन दस दिनों में उत्सव-सा वातावरण रहता है। जैसे समूचा जनमानस ऊर्जावान हो जाता है। दोनों समय गणपतिजी की आरती होती है। जहां सब देवता फूलों से प्रसन्न होते हैं, वहीं गजानन दुर्वा और केवड़ा पसंद करते हैं। उनकी पसंदीदा वस्तुएँ मोदक और लड्डू हैं। भरपेट खाने वाले ये मंगलमूर्ति जब अपने भक्तों को चतुर्थी का उपवास करवाते हैं, तब बिना चंद्रोदय (चंद्रदर्शन) के उपवास छोड़ना वर्ज्य माना जाता है। जब निर्जला इक्कीस चतुर्थी का व्रत रखा जाता है, तब इक्कीस मोदक बनाए जाते हैं- बीस मीठे और एक नमक का। दिनभर निर्जला उपवास रखकर शाम को इन मोदकों को खाकर उपवास छोड़ा जाता है।

मोदक खाते-खाते जैसे ही नमक वाला मोदक खाने में आ जाता है, उसी समय पानी पीकर शेष मोदक वैसे ही छोड़ देना पड़ते हैं। संभव है, आपको खाते समय पहला मोदक ही नमक वाला आ जाए...। तो ऐसे भी हैं, इन सरल ओंकार स्वरूपा के कठिन व्रत।

अष्ट विनायक की यात्रा और विभिन्न गणेश प्रतिमाओं के दर्शन भी अपने आपमें एक अनूठा और मन को विभोर कर देने वाला अनुभव है। अष्ट विनायक के सभी आठों गणपति महाराष्ट्र में हैं, जहां जाने के लिए पुणे से आसानी से साधन उपलब्ध हैं।

यहाँ भी सभी गणेश प्रतिमाओं के विभिन्न नाम हैं तथा प्रत्येक गणपति के उस विशिष्ट स्वरूप का अपना अलग महत्व है। मोरगांव में भी मयूरेश्वर हैं। पाली क्षेत्र में बल्लाकेश्वर हैं। ओझर तीर्थ के श्री विघ्नेश्वर तथा रांझणगांव के श्री महागणपति। थेऊर में चिंतामणि गणेश और बेण्याद्रि में मिरिजात्मज गणेशजी हैं। सिद्धटेक स्थान पर सिद्धि विनायक तथा महाड़ में वरदविनायक विद्यमान हैं।

निश्चित ही दस दिनों के पश्चात गणेशजी की बिदाई मन को उदास कर देगी पर जाकर बार-बार वापस आने की यह सुखद श्रृंखला ऐसे ही युगों-युगों तक जारी रहेगी। आज भी कई परिवारों में गणपतिजी के विसर्जन के समय उनके साथ एक पोटली में (शिदोरी) चावल-गुड़ और पैसा (सिक्का) बाँधकर देने का रिवाज है। इसका उद्देश्य है, वे जितने दिन हमसे दूर रहें, जिस भी यात्रा पर रहें, भूखे न रहें।

' गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ' इस वचन की परंपरा को निभाते हुए गणपति गाते-बजाते हमारे बीच एक बार पुनः पधार चुके हैं। हम इन दस दिनों में एक लय-ताल में बद्ध होकर इस कलानिधि की हर तरह से पूजा करें। इनके गूढ़ चरित्र को समझें। इनके गुणों से कुछ सीखें। विघ्नहर्ता बनें।

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