अनंत चतुर्दशी व्रत

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यह व्रत भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को किया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु की कथा होती है। इसमें उदयव्यापिनी तिथि ग्रहण की जाती है। यह दिन अंत न होने वाली सृष्टि के कर्ता निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का दिन है। इस दिन भक्तगण लौकिक कार्यकलापों से मन को हटाकर ईश्वर भक्ति में अनुरक्त हो जाते हैं। इस दिन वेद-ग्रंथों का पाठ करके भक्ति की स्मृति का डोरा बाँधा जाता है। इस व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है।

व्रत-पूजा कैसे करे ं
* इस दिन व्रती प्रातः स्नान करके निम्न मंत्र से संकल्प लें-
ममाखिलपापक्षयपूर्वक शुभफलवृद्धये
श्रीमदनंतप्रीतिकामनया अनंतव्रतमहं करिष्ये ।
* संकल्प के पश्चात अपने निवास स्थान को स्वच्छ व सुशोभित करें।
* इसके बाद कलश की स्थापना करें।
* कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनंत की स्थापना करें।
* इसके पास कुमकुम, केसर या हल्दी रंजित चौदह गाँठों वाला 'अनंत' भी रखें।
* तदुपरांत कुश के अनंत की वंदना करके, उसमें भगवान विष्णु का आवाहन तथा ध्यान करें।
* फिर गंध, अक्षत, पुष्प, धूप तथा नैवेद्य से पूजन कर निम्न मंत्र से नमस्कार करें-
नमस्ते देव देवेश नमस्ते धरणीधर।
नमस्ते सर्व नागेंद्र नमस्ते पुरुषोत्तम ॥

* इसके बाद अनंत देव का पुनः ध्यान करके शुद्ध अनंत को अपनी दाहिनी भुजा पर बाँधें।
* नवीन अनंत को धारण कर पुराने का त्याग निम्न मंत्र से करें-
न्यूनातिरिक्तानि परिस्फुटानि यानीह कर्माणि मया कृतानि।
सर्वाणि चैतानि मम क्षमस्व प्रयाहि तुष्टः पुनरागमाय॥

व्रत की विशेषताए ँ
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* अनंत भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनंत फलदायक माना गया है।
* यह व्रत धन-पुत्रादि की कामना से किया जाता है।
* व्रत का पारणा ब्राह्मण को दान करके करना चाहिए।
* अनंत की चौदह गांठें चौदह लोकों की प्रतीक हैं, जिनमें अनंत भगवान विद्यमान हैं।
* व्रतकथा सभी बंधु-बाँधवों सहित कहनी-सुननी चाहिए।

अनंत चतुर्दशी व्रतकथा
एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूययज्ञ किया। यज्ञमंडप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था। उसमें जल में स्थल तथा स्थल में जल की भ्रांति उत्पन्न होती थी। पूरी सावधानी के बाद भी बहुत से अतिथि उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे। दुर्योधन भी उस यज्ञमंडप में घूमते हुए स्थल के भ्रम में एक तालाब में गिर गए।

तब भीमसेन तथा द्रौपदी ने 'अंधों की संतान अंधी' कहकर उसका मजाक उड़ाया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया। उसके मन में द्वेष पैदा हो गया और मस्तिक में उस अपमान का बदला लेने के विचार उपजने लगे। काफी दिनों तक वह इसी ऊहापोह में रहा कि आखिर पाँडवों से अपने अपमान का बदला किस प्रकार लिया जाए। तभी उसके मस्तिष्क में द्यूत क्रीड़ा में पाँडवों को हराकर उस अपमान का बदला लेने की युक्ति आई। उसने पाँडवों को जुए के लिए न केवल आमंत्रित ही किया बल्कि उन्हें जुए में पराजित भी कर दिया।

पराजित होकर पाँडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पाँडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन वन में युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से अपना दुःख कहा तथा उसको दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो। इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा। तुम्हें हारा हुआ राज्य भी वापस मिल जाएगा।

इस संदर्भ में श्रीकृष्ण एक कथा सुनाते हुए बोले- प्राचीन काल में सुमन्तु ब्राह्मण की परम सुंदरी तथा धर्मपरायण सुशीला नामक कन्या थी। विवाह योग्य होने पर ब्राह्मण ने उसका विवाह कौंडिन्य ऋषि से कर दिया। कौंडिन्य ऋषि सुशीला को लेकर अपने आश्रम की ओर चले तो रास्ते में ही रात हो गई। वे एक नदी के तट पर संध्या करने लगे। सुशीला ने देखा- वहाँ पर बहुत-सी स्त्रियाँ सुंदर-सुंदर वस्त्र धारण करके किसी देवता की पूजा कर रही हैं। उत्सुकतावश सुशीला ने उनसे उस पूजन के विषय में पूछा तो उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बता दी। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान करके चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बाँधा और अपने पति के पास आ गई।

कौंडिन्य ऋषि ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात स्पष्ट कर दी। मगर कौंडिन्य ऋषि को इससे कोई प्रसन्नता नहीं हुई, बल्कि क्रोध में आकर उन्होंने उसके हाथ में बंधे डोरे को तोड़कर आग में जला दिया।

यह अनंतजी का घोर अपमान था। परिणामतः कौंडिन्य मुनि दुःखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का कारण पूछने पर सुशीला ने डोरे जलाने की बात दोहराई। तब पश्चाताप करते हुए ऋषि 'अनंत' की प्राप्ति के लिए वन में निकल गए। जब वे भटकते-भटकते निराश होकर गिर पड़े तो भगवान अनंत प्रकट होकर बोले- 'हे कौंडिन्य! मेरे तिरस्कार के कारण ही तुम दुःखी हुए हो लेकिन तुमने पश्चाताप किया है, अतः मैं प्रसन्न हूँ। पर घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो। चौदह वर्ष पर्यन्त व्रत करने से तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जाएगा। तुम्हें अनंत सम्पत्ति मिलेगी।

कौंडिन्य ऋषि ने वैसा ही किया। उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई। श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी भगवान अनंत का व्रत किया जिसके प्रभाव से पाँडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक निष्कंटक राज्य करते रहे।
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