गणेशोत्सव की सार्थकता का सवाल

विश्वनाथ सचदेव

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इन दिनों सारा महाराष्ट्र 'गणपति बप्पा मोरया' के स्वरों से गूँज रहा है। पूरे दस दिनों तक जैसे गणपति का जादू-सा छा जाता है। घरों में, गलियों में, सड़कों पर, मैदानों में - और मनों में - गणपति पूजा की धूम-सी मची रहती है। मचे भी क्यों न? आखिर गणपति गजेन्द्र हैं, गणों के पति ।

शास्त्रों में, पुराणों में कई-कई रूपों में गणपति को सराहा गया है, पूजनीय बताया गया है। अध्यात्म और रहस्य का एक विराट संसार जुड़ा है गणपति के नाम के साथ। उनकी पूजा-अर्चना करके भय से मुक्ति का, दुःखहर्ता के साए में होने का,सुखकर्ता के आश्वासनों को जीने का एक अहसास न जाने कब से भारतीय मानस कर रहा है ।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गणेश पूजा को एक नया आयाम दिया था लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने। उन्होंने गणेशोत्सव की एक नई परंपरा शुरू की- गणपति की सार्वजनिक पूजा के माध्यम से समाज और राष्ट्र को अभय और मुक्ति का एक नया अवलम्बन दिया- अत्याचार केभय से मुक्त होने का, मानवीय मूल्यों के प्रति, स्वतंत्रता के आदर्शों के प्रति निष्ठा जगाने का एक माध्यम बना दिया लोकमान्य ने गणपति को।

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आजादी की लड़ाई के उस दौर में गणेश से प्राप्त अभय के वरदान से सज्जित होने की भावना ने समूचे स्वतंत्रता आंदोलन को एक नया आयाम दे दिया था। तिलक ने स्वतंत्रता को राजनीतिक संदर्भों से उबारकर देश की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक-चेतना से जोड़ा था। सौसाल से भी अधिक काल से चली आ रही यह सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक चेतना की त्रिवेणी हर साल गणेशोत्सव के अवसर पर नए-नए रूपों में सामने आती है।

कई-कई रूपों का मतलब उस बदलाव से है जो पिछले लगभग सौ सालों में महाराष्ट्र में गणेश पूजा के अवसर पर दिखाई देता है । जहाँ तक सामान्यजन का सवाल है, वह आज भी चरम आस्तिक भाव से 'ॐ गणानां त्वां गणपति गुं हवामहे' का पाठ करके सुरक्षा-समृद्धि का एक भाव पा लेता है, जो किसी भी देव की आराधना का शायद मूल कारण है। पूरे दस दिन कम से कम महाराष्ट्र में 'जय देव, जय देव, जय मंगलमूर्ति' का स्वर ही गूँजता रहता है। लोकमान्य तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव की जो परंपरा शुरू की थी वह कुल मिलाकर फल-फूल ही रही है। पूजा के पांडाल लगातार बड़े होते जा रहे हैं और पूजा भी सिर्फ कर्मकांड तक सीमित नहीं है ।

गणेशोत्सव धर्म, जाति, वर्ग और भाषा से ऊपर उठकर महाराष्ट्र में सबका उत्सव बन गया है । गणपति बप्पा मोरया का स्वर जब गूँजता है तो उसमें हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों की सम्मिलित आस्था का वेग होता है । किसी गोविंदा और किसी सलमान के घर में गणपति की एक जैसी आरती का होना कुल मिलाकर उस एकात्मकता का ही परिचय देता है जो हमारे देश की एक विशिष्ट पहचान है। साल-दर-साल गणेशोत्सव पर इस विशिष्टता का रेखांकित होना अपने आप में एक आश्वस्ति है।

गणेशोत्सव के अवसर पर एक और महत्वपूर्ण तथ्य भी रेखांकित होना चाहिए- गणेश अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजगता एवं सक्रियता के देवता भी हैं । इसलिए जब हम गणपति की पूजा करते हैं तो इसका अर्थ स्वयं को उस चेतना से जोड़ना भी है जो जीवन को परिभाषित भी करती है और उसे अर्थवत्ता भी देती है। यह चेतना अपने अधिकारों की रक्षा के प्रति जागरूकता देती है और अपने कर्तव्यों को पूरा करने की प्रेरणा भी।

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तिलक ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को पूरा करने के लिए गणेशोत्सव को एक साधन बनाया था। इसी तर्क का तकाजा है कि हम इस बात को भी समझें कि गणेशोत्सव की वह भूमिका स्वतंत्र भारत में स्वतंत्रता को अर्थवान बनाने और उसकी रक्षा के लिए भी साधन बन सकती है।गणपति गणों के स्वामी हैं ।

गण अर्थात समाज की एक मूलभूत इकाई। इस गण की रक्षा, इस गण का पालन, इस गण का संवर्द्धन गणपति अर्थात राजा का कर्तव्य बनता है। शासक द्वारा अपने कर्तव्य की यह पूर्ति हमारी स्वतंत्रता की रक्षा का एक ठोस स्वरूप है । आज यदि तिलक होते तो निश्चित रूप से वे गणपति की इस व्याख्या को गणेशोत्सव का अंग बनाते और इस उत्सव के माध्यम से गण और गणपति दोनों के कर्तव्यों-अधिकारों की रक्षा की महत्ता रेखांकित करते, लेकिन सार्वजनिक गणेशोत्सव का जो स्वरूप आज सामने आ रहा है, उसे देखकर कभी-कभी यह भय लगता है कि हम पूजा के पथ से विचलित तो नहीं हो रहे।

लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव के माध्यम से कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति एक चेतना जगाने का काम किया था, लेकिन आज तिलक द्वारा प्रेरित इस गणेशोत्सव से चेतना का यह स्वरूप लगातार पृथक होता दिख रहा है । मुंबई में जिस तरह गणेशोत्सव की भव्यता एक दिखावा बनती जा रही है, जिस तरह सामाजिक चेतना को जगाने की बजाय गणेशोत्सव को वैयक्तिक राजनीतिक हितों को साधने का माध्यम बनाया जा रहा है, उसे देखते हुए कहीं न कहीं यह चिंता जन्मनी ही चाहिए कि कोई आस्था और श्रद्धा का गलत लाभ उठाने की कोशिश तो नहीं कर रहा?

इस चिंता से भी अधिक महत्वपूर्ण इस भावना का जन्मना है कि इस महोत्सव की सकारात्मक प्रवृत्तियों को उत्प्रेरक कैसे बनाया जाए, श्रद्धा और आस्था को सामाजिक एवं राष्ट्रीय हितों से कैसे जोड़ा जाए।

यहाँ यह स्वीकारना होगा कि इस दिशा में छोटे-मोटे प्रयास लगातार होते रहे हैं, लेकिन आवश्यकता इन छोटे प्रयासों को वृहत आकार देने की है। धार्मिक उत्सव सामाजिक हितों से पृथक नहीं हो सकते, आवश्यकता इस रिश्ते को उचित आकार देने की है।

गणाधिपति गणेश की कथा का एक सूत्र यह भी है कि गणेश एक 'द्वारपाल' से 'गणाधिपति' के आसन तक पहुँचे थे - अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहकर एवं अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वाह करके। अपने सामर्थ्य के अंतिम छोर को छूने की प्रेरणा देती है यह काया।गणेशोत्सव इस प्रेरणा को साकार करने का एक अवसर बनना चाहिए।
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