तत्व ओंकार के स्वरूप

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- डॉ. आर.सी. ओझ ा
परम तत्व ओंकार के साक्षात स्वरूप, रिद्धि-सिद्धि के दाता सच्चिदानंद श्री गणेश की स्तुति मात्र से ऐसा आभास होता है कि आत्मा सुधा सिंधु में स्नान कर पावन हो गई है।

श्री गणेश का पुण्य स्मरण जीवन में आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है। नेपाल से रामेश्वरम तक अनेक स्थानों पर गणेशजी की मूर्ति विराजमान हैं।दक्षिण एशिया के एक बहुत बड़े भू-भाग में गणेशजी की श्रद्धा से आराधना की जाती है।

महाभारत के रचयिता वेद व्यास, ज्ञानेश्वर, एकनाथ, स्वामी रामदास आदि अनेक संतों ने उनके ओंकार स्वरूप का यशोगान किया है। संत तुलसीदास ने अपनी कालजयी कृति श्री रामचरित मानस में सबसे पहले श्री गणेश की ही वंदना की है।

सभी मंगल कार्यों के आरंभ में गणेशजी का आह्वान, पूजा और स्थापना की जाती है। महाभारत काल के बहुत पहले गणेश पूजन व गणेश चतुर्थी के व्रत के प्रमाण हैं। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गणेश व्रत किया था।

गणेशजी मंगलकारी व विघ्नहर्ता हैं और विद्या-बुद्धि के अधिष्ठाता देव हैं।भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी या चौथ को गणेशजी का अवतार होना बताया है। गणेश पुराण के दूसरे अध्याय में ऐसा उल्लेख है। कुछ ग्रंथों में भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मध्याह्न में गणेशजी का प्रकट होना बताया है।

' हरि अनंत हरिकथा अनंता', की लोकोक्ति के अनुसार श्री गणेश के अनेक नाम हैं। जैसे गजानन, विनायक, गणेश, गणपति, लंबोदर, गणेश्वर, गौरीपुत्र, स्कन्दाग्रज, दशाध्यक्ष, इन्द्रश्री, शर्वतनय, मुनि रतुल्य, एकदंत, सूर्यकर्ण, हे रम्ब, पाशंकुशधर, निरंजन, वरद, कृतिन, गदिन, श्रीश, चन्द्रचूड़, अमरेश्वर, श्रीकंठ, पुरुषोत्तम, सिद्धिदायक, सुभग, वामीश, कान्त, वक्रतुंड, पंचदंत आदि 108 नामों से गणेशजी सुशोभित हैं।

ऐसी मान्यता है कि संकट हरने के लिए गणेशजी का स्मरण रामबाण की तरह काम करता है।विशेष रूप से संकष्ट चतुर्थी को संकट हरने के लिए गणेशजी की आराधना की जाती है, अभिषेक किए जाते हैं। ग्रहों के अनुसार सूर्य के आगे जब चंद्रमा बारह अंश का हो जाता है, तब एक तिथि होती है। इसके अनुसार पूर्णिमा के बाद 48 से 60 अंश के चंद्रमा के कालखंड को संकष्ट चतुर्थी कहते हैं।

भविष्यपुराण के अनुसार गणेश पूजन-व्रत अनादिकाल से अविरल रूप से चले आ रहे हैं। गणपति उपनिषद में गणपति से संबंधित धार्मिक त्योहारों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। संपूर्ण भारत में और विशेष रूप से महाराष्ट्र में, भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष की चतुर्थी को विशेष सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। गणेशजी की पूजन सुदूरपूर्व जापान तक भी होती है।

वैष्णव संहिता में गणेश संहिता का उल्लेख भी मिलता है। इसमें गणेश की स्तुतियों का संग्रह है और गणेशस्रोत भी शरीक है। गणेशजी के संबंध में अपने-अपने ढंग से पौराणिक कथाएँ कही-सुनी गई हैं। कई दंत कथाएँ भी हैं।एक कथा के अनुसार माँ पार्वती को विवाह के पश्चात कई वर्षों तक संतान नहीं हुई। तब उन्होंने भगवान विष्णु की आराधना की।

ऐसी मान्यता है कि स्वयं भगवान विष्णु गणेश के रूप में अवतरित हुए हैं। एक अन्य कथा के अनुसार शनिदेव की दृष्टि से बालक गणेश का सिर आकाश में अंतरध्यान हो गया था। फिर गज का सिर उन पर लगाया गया और वे गजानन हो गए। एक और कथा के अनुसार पार्वतीजी ने मिट्टी के गणेश बनाए और उसमें प्राण प्रतिष्ठित कर दिए।

जब भगवान शिव आए तब द्वार पर बैठे गणेश ने उन्हें प्रवेश नहीं करने दिया। तब क्रोध में उन्होंने गणेशजी का मस्तक काट दिया। फिर सभी देवताओं की प्रार्थना के बाद हाथी के मस्तक को उन पर लगाया गया। आज तक हाथी को गणेशजी का साक्षात रूप समझा जाता है।

चतुर्थी को पार्थिव गणेश की स्थापना की जाती है और अनंत चतुर्दशी को गणपति को पावन सरोवरों में विसर्जित किया जाता है।वैज्ञानिक दृष्टि से गणेशजी की काया बहुत ही सारगर्भित है। उनके बड़े-बड़े कान बताते हैं कि वे प्रार्थना अवश्य सुनेंगे। मुँह पर हाथी की सूंड वाचा तपस्या या वाणी नियंत्रण का संदेश देती है।

बड़ा उदर सबकी बातें हजम करने का प्रतीक है।अपने पिता शिव की तरह गणेशजी भी त्रिनेत्र धारण कर लेते हैं और शिव की तरह ही इनके ललाट पर भी चंद्र विराजमान हैं, सिर्फ फर्क इतना है कि शिव की जटा में चंद्र स्थित है।

राक्षसों के विनाश के लिए गणेशजी भी रौद्र रूप धारण करने में सक्षम हैं। गणेशजी के आध्यात्मिक स्वरूप की दृष्टि से इनका वाहन मूषक कालस्वरूपी माना गया है। भक्तों ने 'एक दंत दयावंत चार भुजाधारी' कहकर इनकी स्तुति की है।ये अंधों को आँखें, कोढ़ी को काया, बाँझ को पुत्र और रंक को राजा बनाने में सक्षम हैं। श्री गणेशाय नमः के उच्चारण से शुरू किया गया कार्य सफल होता ही है। जहाँ गणेशजी का नाम स्मरण किया जाता है, सभी तीर्थ स्वयं ही वहाँ चले आते हैं।
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