पिछले चुनावों में राष्ट्रीय लोकदल एनडीए का हिस्सा था। अब नहीं है। अब हेमा खुद अपने लिए वोट मांगने आई हैं, जयंत के लिए नहीं। उस समय हेमा मालिनी को जो इधर रिस्पांस मिला था, उसी को देखते हुए...और ये निर्णय कोई गलत भी नहीं होने जा रहा। हेमा का ग्लेमर और मोदी की लहर ने मिलकर यहां ऐसा माहौल रचा है कि जयंत चौधरी के लिए सीट फिर से निकाल पाना मुश्किल है। पांच साल वे सांसद रहे और कुछ नहीं किया। मथुरा की जनता उनसे खुश नहीं है।
मथुरा आने के बाद अपनेराम ने एक बार फिर लोगों का मन टटोला। बीसियों लोगों से बात की। सबने कहा कि इस बार तो भाजपा का जोर है। लोगों के पास भाजपा को वोट देने के लिए अनेक कारण है। एक कारण जयंत चौधरी की गुमशुदगी।
लोगों का कहना है कि वे जीत कर गए तो पलट कर आए ही नहीं। कुछ लोग मोदी के लिए हेमा को वोट देंगे और कुछ लोग मोदी के बावजूद हेमा के लिए हेमा को वोट देंगे। कुछ लोग इसलिए देंगे कि इस बार सरकार भाजपा की ही बनती दिख रही है, सो हेमा को वोट देना ही ज्यादा ठीक है।
जातीय समीकरण का कितना फायदा मिलेगा हेमा को... पढ़ें अगले पेज पर...
हालांकि जातीय समीकरण को देखा जाए तो जयंत चौधरी जाट हैं और जाट वोट हैं सवा तीन लाख। ब्राम्हण है पौने तीन लाख। ठाकुर भी इतने ही। बनिये पौने दो लाख और मुस्लिम एक लाख सत्तर हजार। सोलह लाख वोटरों में से मोटे-मोटे फिगर यही हैं। बाकी सब मिले जुले हैं। मगर इस बार जाति का पत्ता भी चलता हुआ नहीं दिख रहा।
हेमा मालिनी अपने भाषणों में खास तौर पर यह दोहरा रही हैं कि भाजपा सबकी है। उधर मोदी की लहर भी जात से बढ़कर है, खासकर युवाओं में। तो यही नजर आ रहा है कि इस बार जयंत चौधरी हार सकते हैं और हेमा के जीतने की संभावनाएं प्रबल हैं।
होने को कुछ भी हो सकता है, मगर इस समय तो यही होता हुआ दिख रहा है। प्रचार में भी भाजपा आगे है। जयंत चौधरी के कहीं झंडे बैनर नहीं दिखते। हालांकि वे भी गांवों में धुआंधार प्रचार कर रहे हैं मगर उसका असर होता नहीं दिख रहा। यहां के कुछ लालबुझक्कड़ हेमा मालिनी को पांच लाख से जिता रहे हैं तो कुछ दो लाख से।
चुनाव लड़ रहीं हैं तीन-तीन हेमा... पढ़ें अगले पेज पर....
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मथुरा के गांव तरौली से गुज़रते हुए एक बहुत बढ़िया गंध हवा में महसूस की। पूछा कि ये खुशबू किस चीज़ की है, तो दो नौजवान लड़के हंस पड़े। बताने लगे कि ये जो राह किनारे पौधे उगे हैं, ये गांजा और भांग के हैं। इन्हें कोई उगाता नहीं, ये बस इस गांव में हर जगह (अपनी गाजरघास की तरह) खुद ब खुद उग जाते हैं।
गांव के नशेड़ी गांजे और भांग की पत्तियों में फर्क करना जानते हैं। वरना दोनों इतनी एक जैसी होती हैं कि आम आदमी तो पहचान ही नहीं पाए। बहरहाल गांजे के शौकीन इन पत्तियों को तोड़कर सुखा लेते हैं और फिर चिलम में भर कर...। भांग के शौकीन या तो ताजा पत्ती पीस लेते होंगे या फिर इतनी भी जहमत नहीं करना हो तो तोड़कर ऐसे ही कचर-कचर चबा लेते होंगे। खैर उनकी वो जाने...। पूछा कि पुलिस...तो कहने लगे ये किसके खेतों में उग रही हैं? हर जगह तो उग रही है, पुलिस किसे पकड़ेगी?