अंबानी के पीछे क्यों पड़े हैं केजरीवाल?

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यहां इस प्रश्न पर विचार करने से पहले कुछेक विचारणीय तथ्यों पर ध्यान देना जरूरी है। दिल्ली में वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) की चमत्कारी सफलता के बाद जिन 28 सीटों पर आप को जीत हासिल हुई, वहां इसकी जीत के कुल मतों की संख्‍या दो लाख 12 हजार है जबकि भाजपा को इसकी तुलना में तीन लाख 74 हजार मत मिले हैं। आम आदमी पार्टी की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि इसके पक्ष में बहुत सारी बातें कही जा सकती हैं, लेकिन इस पार्टी के बारे में एक बात अहम यह है कि उनके विचार और सिद्धांत ऐसे हैं जिनका व्यवहार‍िकता में क्रियान्वयन लगभग असंभव है।

अब हम अपने मुख्य विषय पर आते हैं। राजधानी में चुनावी विश्लेषक अपने बाहरी तौर पर कार्यकर्ता और अंदरूनी तौर एक अराजकतावादी मुख्यमंत्री की चुनाव सफलता का सही सही आकलन कर पाते कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया। लेकिन, यहां पर यह बात समाप्त नहीं होती है वरन शुरू होती है कि आखिर केजरीवाल ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी और देश के सबसे बड़े उद्यमी मुकेश अंबानी को ही अपने निशाने पर क्यों लिया?

दिल्ली चुनावों से पहले आप प्रमुख केजरीवाल ने बड़ी सावधानी से अपने निशाने चुने हैं ताकि उन्हें‍ ना केवल विधानसभा चुनावों वरन लोकसभा चुनावों में भी राजनीतिक लाभ मिले। दिल्ली चुनावों में शीला दीक्षित उनके लिए बड़ा मुद्‍दा थीं, जिनके खिलाफ उन्होंने चुनाव लड़ा और बिजली दरों को अपना सबसे बड़ा मुद्दा बनाया।

शीला को हराने के बाद वे उन्हें राजनीति से ही हटाने में सफल हुए तो लोकसभा चुनावों के लिए उन्होंने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी और मुकेश अंबानी को अपने निशाने पर लिया है। जाहिर है कि बिजली दरों का जिस मुद्‍दे पर उन्होंने विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की थी, वह अभी तक समाप्त नहीं हुआ। बिजली का मुद्दा अभी भी बना हुआ है क्योकि बिजली बितरण करने वाली कम्पनियां अंबानी बंधुओं की हैं। वे चाहते तो लोकसभा के लिए चुनाव अभियान की शुरुआत वे अपने राज्य हरियाणा से कर सकते थे, लेकिन उन्होंने इसके लिए गुजरात को चुना।

तो क्या सोची-समझी रणनीति के तहत काम कर रहे हैं केजरीवाल...पढ़ें अगले पेज पर...



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अगर आप इस पर अच्छी तरह से विचार करें तो आपको केजरीवाल के चुनावी गणित का भी अंदाजा लग जाएगा। दिल्ली में करीब 70 हजार ऑटोरिक्शा चलते हैं जिनमें सीएनजी का इस्तेमाल होता है। यह भी जान लें कि एक ही रिक्शा को दिन भर में कम से कम दो या तीन पारियों में चलाया जाता है। इस तरह एक ऑटो पर दो-तीन ऑटो वाले निर्भर करते हैं। इस तरह दिल्ली की चुनावी जीत में रिक्शा वालों के मतों का बहुत निर्णायक महत्व रहा है।

एक ऐसे चुनाव में जहां दो बड़े दलों की जीत का अंतर क्रमश: 3.74 लाख वोट और 2.12 लाख वोट रहा हो, ऐसे चुनाव में एक मुश्त 3.3 मतों का समर्थन बहुत ही निर्गायक होता है। हालांकि यह कहा जा सकता है कि जरूरी नहीं है कि सारे वोट आप को ही मिल गए हों, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इनमें से 60-70 फीसदी वोट भी कम निर्णायक नहीं होते। इस आपको मिलने वाले मतों की संख्या 1.97 लाख से 2.30 लाख तक ठहरती है।

अब आप समझ सकते हैं कि गैस और अम्बानी चुनाव का मुद्दा क्यों बने? एक सर्वेक्षण के मुताबिक चुनाव से पहले दिल्ली में चालीस हजार से ज्यादा ऑटो पर आप के पोस्टर लगे थे। यह स्थिति अगस्त 2013 में थी। इस कारण से चुनाव जीतने के बाद भी आप सरकार के ज्यादा फैसले भी ऑटो वालों से जुड़े थे। यह मुद्दे ऐसे हो सकते हैं जिनको उठाया गया हो या फिर राज्य सरकार ने अपने आप ही उठाया हो।

अपने 49 दिनों के कार्यकाल में आप सरकार ने ऑटो ड्राइवरों को लेकर एक महापंचायत भी की थी। इस तरह चुनावी वादों और इनके पूरा ना होने को लेकर भी मामले सामने आए। आप के मध्यमवर्गीय रिक्शों में चलने वाले लोगों की कीमत पर ऑटोवालों का समर्थन हासिल करने की कोशिशें कीं क्योंकि मध्यम वर्ग किसी भी दल का एकजुट होकर समर्थन नहीं करता है। इस कारण से बहुत सारे मामलों को छोड़कर केवल गैस की कीमतों और अम्बानी को मुददा बनाना बेहतर समझा गया।

दिल्लीवासियों को दिया केजरीवाल ने फटका, कैसे...पढ़ें अगले पेज पर...



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दिल्ली से जुड़े मामले की एफआईआर को राजधानी के एसीबी में दर्ज कराया क्योंकि इससे जुड़े लेनदेन के क्षेत्र को ही दिल्ली मान लिया गया। इस लिहाज से केन्द्र सरकार जो भी फैसले करती है, उनके खिलाफ भी एफआईआर एसीबी में दर्ज कराई जा सकती है। गैस की कीमतों को दोगुना करने के मामले को लेकर आप ने जो मुद्‍दा उठाया है, उससे देश का हित यह होगा कि इससे गैस की कीमतों के निर्धारण की प्रक्रिया को लेकर विस्तार से बहस होगी और इसके बारे से सारे देश के लोगों को जानकारी हो सकेगी।

आप नेतृत्व ने हालांकि अपनी धर्मयोद्धा छाप व्यवहार की शैली से सरकार को ‍झुका देने की रणनीति अपनाने पर जोर दिया ताकि इससे आम लोगों तक यह संदेश जाए कि आप और इसके नेता किसी भी विरोधी को झुकने पर मजबूर कर सकते हैं। जबकि होना तो यह चाहिए ‍था कि इसे गैस कीमतों पर रंगराजन समिति की सिफारिशों की गलतियों को सही करने पर जोर दिया जाना चाहिए था। अगर आप प्रक्रिया को ही गलत ठहरा देते हैं तो इसका एक ही अर्थ है कि सभी कुछ गलत हो रहा है।

अगर आप नेतृत्व चाहता तो वह समूची कार्यप्रणाली, रंगराजन समिति की सिफारिशों के ‍आर्थिक पक्ष, इसके सावधानी पूर्ण विश्लेषण, तेल उत्खनन के पीछे के आर्थिक सिद्वांतों के अध्ययन, मूल्य निर्धारण और अंतरराष्ट्रीय बेंचमार्किंग के पक्षों पर विचार किया जाता, लेकिन ऐसा करने के दौरान केजरीवाल का कोई करिश्मा और एकाएक हमला करने की छापामार शैली जाहिर नहीं हो पाती।

इसलिए कहा गया कि सरकार और इससे जुड़ा व्यक्ति और उद्योगपति भ्रष्ट है, वे आप, इसके नेता और उसके समर्थक ही ईमानदार हैं। इस कारण से आप के बिजली और गैस से मुद्दा अहम हो गया। आप सरकार ने मध्यमवर्गीय लोगों को फ्री और सस्ती बिजली पानी की योजना उजागर की ताकि लोकलुभावन नीतियों के बल पर लोगों को आकर्षित किया जा सके।

आप ने इसी सिलसिले में उन 24 हजार लोगों के बिजली के बिल माफ कर दिए जोकि पार्टी के बिजली के बिल न जमा करने के आंदोलन में शामिल थे। लेकिन पार्टी ऐसे लोगों के लिए बिल माफी की छह करोड़ की रा‍श‍ि का बिल आप सरकार ने इस्तीफा देने से पहले पास नहीं किया। जिसका नतीजा यह है कि ऐसे लोगों को न केवल बिल भरना पड़ा वरन बिल भरने में देरी के कारण अतिरिक्त राशि भी जमा करनी पड़ी। बिजली वितरण कंपनियां ऐसे लोगों से बिल भरवाकर ही मानेंगी और आप समर्थकों को आंदोलन में भाग लेने का यह इनाम भी मिला है जिसके बारे में उन्होंने सोचा भी नहीं हो।

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बिजली की कहानी : पिछले वर्ष 28 जून को मनमोहनसिंह की सरकार ने 1 अप्रैल, 2014 से गैसी कीमतों में बढ़ोतरी करने का फैसला लिया। जबकि 20 नवंबर, 2013 को आप में विजली की दरों में 50 फीसदी कमी करने का वायदा किया था। दो अन्य राष्ट्रीय दलों ने दिल्ली को 'सरप्लस बिजली' वाला राज्य बनाने का वायदा किया था। आप की ओर से यह वायदा जल्दवाजी में किया गया था जबकि विशेषज्ञों ने इस बात की चेतावनी दी थी कि ऐसा करने सपने और हकीकत में भारी अनियमितता है।

गैस मूल्यों में बढ़ोतरी के साथ ही बिजली की लागत 60 से 70 फीसदी तक बढ़ जाती है और जहां तक सब्सिडी देने की बात है तो राजधानी में कुल 54370 लाख यूनिट्‍स की खपत होती है, ऐसे सभी लोगों को सब्सिडी देने पर इतना खर्चा आता है कि इसे वहन करना सरकार के लिए संभव नहीं होता। विदित हो कि दिल्ली में विजली वितरण कंपनियों की कुल आय 15 हजार करोड़ रुपए होती है, केजरीवाल अगर इसमें आधा माफ कर देती तो भी राशि 7500 करोड़ रुपए होती।

राज्य सरकार पर गैस आधारित बिजली की लागत प्रति वर्ष 1456 करोड़ होती। जब उन्होंने सोचा कि यह ‍इतनी बड़ी राशि है कि इसकी भरपाई संभव नहीं है। यह दिल्ली के समूचे बजट-37,450 करोड़- है। यह राशि इसके बीस फीसद राशि के बराबर बैठती है। दिल्ली का नियोजित व्यय ही 15 हजार करोड़ है तो उन्होंने महसूस किया कि मुफ्त बिजली, पानी का वादा बहुत महंगा पड़ने वाला है तो उन्होंने कुसी छोड़ना ही बेहतर समझा।

पार्टी की सोच यह थी कि प्रमुख बिजली वितरण कंपनियो से चोरी की रकम बसूलकर और इसे अल्पकालिक नकदी की समस्या को सुझलाने में लाया जा सकता है। यह सोचा गया कि कैग के ऑडिट से सभी कुछ ठीक किया जा सकता है। लेकिन केजरीवाल को पता नहीं था कि बिजली वितरण कंपनियां 10-15 साल से राज्य की जरूरतों को पूरा कर रही हैं। इतना ही नहीं, उनकी अंडर रिकवरी करीब 20 हजार करोड़ रुपए थी और वे एनटीपीसी को भी पैसा चुकाने की स्थिति में नहीं थी। एनटीपीसी ने उनके बकाया पैसा ना देने की स्थिति में आपूर्ति बंद करने की धमकी दी थी और अंत में इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा तब जाकर कहीं मामला सुलझा था। पूरी सप्लाई चेन की जटिलता को समझने की बजाय आप ने तथाकथित सम्पन्न लोगों को अपनाया निशाना बनाया और गरीब उपभोक्ताओं की वाहवाही और सहानुभूति बटोरी।

यह इस बात का संकेत है कि आप के सवेसर्वा को आर्थिक मामलों की समझ नहीं है और वे स‍िद्धातों को मान्यता नहीं देते हैं। फिर भी अगर आप यह मानते हैं कि केजरीवाल बहुत भोले हैं और उनकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है तो आप गलती पर हैं। देश के दो बड़े राष्ट्रीय दलों ने ऐसा ही सोचा और इसकी कीमत चुकाई। अगर अब भी उनके राजनीतिक विरोधी ऐसा सोचते हैं तो यह उनके लिए आत्मघाती कदम ही होगा। क्या आप सोचते हैं कि केजरीवाल को इस बात का अहसास नहीं है कि वे देश के दो बड़े लोगों पर निशाना साधेंगे ता इससे उन्हें राजनीतिक लाभ मिलेगा। उनकी विचारधारा भी कुछ ऐसी है जैसीकि मोदी का गुजरात ब्रांड है और कांग्रेस के युवराज के लिए उनका उपनाम ही सभी कुछ है क्योंकि किसी के भी पास दिखाने को कुछ ही महत्वपूर्ण नहीं है। जहां तक केजरीवाल के कुछ कर दिखाने की बात है तो वे दिल्ली में अपनी सरकार चलाने के 49 दिनों में दिखा चुके हैं। उन्हें जब लगा कि सभी कुछ हाथ से फिसलने वाला है तो उन्होंने बहुप्रतीक्षित कदम उठाते हुए इस्तीफा दे दिया।

उनका इस्तीफा कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं थी क्योंकि सभी जानते थे कि वे अब क्या करने वाले हैं? एक निर्वाचित सरकार में मुख्यमंत्री होने के बावजूद अराजक आंदोलन करने, सड़क के किनारे आधी रात को कम्बल लेकर सोना, कानून मंत्री द्वारा कानून की धज्जियां उड़ाते हुए छापे ड़ालना, कानून की अवज्ञा करने वाले आंदोलनकारियों को लाभ पहुंचाना, बिजली वितरण कंपनियों को धमकी भरी चिट्‍ठियां लिखने और सरकार चलाने के लिए विचित्र प्रक्रियाओं को अपनाने वाले केजरीवाल इस्तीफा देने के लिए बहाने की ही तलाश कर रहे थे। उनका पूरा आंदोलन गैस की कीमतें और बिजली की दरों पर आधारित था और इससे पहले कि लोग उन्हें उनकी असफलताओं के लिए दोषी ठहराते, उन्होंने उंगली कटाकर शहादत हासिल कर ली। गवर्नेंस उनके लिए बोरिंग बात रही है और वे सड़कों पर ही सक्रिय रहकर अपने कार्यकर्ता होने का प्रमाण देते रहे।

क्या केजरीवाल को लोगों की चिंता है... पढ़ें अगले पेज पर....


केजरीवाल कभी भी एक ऐसे मुख्यमंत्री नहीं रहे, जिसे इस बात की चिंता हो कि वे लोगों के लिए क्या कर सकते हैं या उन्होंने मतदाताओं से वायदे किए हैं, उन्हें कैसे पूरे किए जाएं। वे सारा समय ऑटोवालों और मध्यम गर्वीय लोगों को खुश करने के अल्पकालिक तरीके सोचते और अंत में परिणाम यह हुआ कि समाज का कोई भी तबका उनकी कार्यशैली से खुश नहीं है। उनका सोचना मात्र इतना था कि दिल्ली में अगर सीएनजी की कम है तो इसके लिए मुकेश अम्बानी जिम्मेदार हैं क्योंकि वे ही देश में गैस, तेल के सबसे बड़े उत्पादक, वितरक हैं।

इससे पहले दिल्ली में जो कुछ भी गड़बडियां हुई थी जिनके लिए शीला दीक्षित ही जिम्मेदार थी लेकिन उन्होंने इन गडबडियों को दूर करने का कोई ऐसा उपाय नहीं किया जोकि लोकलुभावन ना हो। राजनीति के मैदान में भले ही उनकी सदिच्छाएं रही हों लेकिन इनके बल पर ही सभी कुछ नहीं किया जा सकता है।

जो राजनीतिक दल कहता है कि राजनीति में बहुत गंदगी है तो उसे गंदगी में उतर इसे खुद ही साफ करने की कोशिश करनी चाहिए। उनके सा‍थ‍ियों ने जो कोशिश की वह लोकलुभावन ज्यादा और परिणामोन्मुखी कम रही है। दिल्ली को सुचारु रूप से चलाने संबंधी बातों पर विचार करने के लिए 49 दिनों का समय पर्याप्त होता है लेकिन वह यह भी नहीं कर सके। इतना ही नहीं, उनके माथे पर असफलता का भी टीका था और इस कभी को वे अपने कितने ही प्रचार से मिटा नहीं सकते हैं।

अब ऐसा भी नहीं लगता कि देश के आम चुनावों में 'आप' को बहुत बड़ी सफलता मिलेगी क्योंकि पार्टी के अंतर्विरोध और पार्टी के नेताओं में कुर्सी को लेकर छटपटाहट आम आदमी के सामने आने लगी है और अब यह स्पष्ट हो गया कि 'आप' कांग्रेस या भाजपा से अलग होने का जो ढोल पीटती रही है, दरसरल ऐसा कुछ नहीं है। इसे छोटे पैमाने पर कांग्रेस या भाजपा की ही एक बी टीम समझी जा सकती है।
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