अगर 'आप' को बचे रहना है तो...

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आम आदमी पार्टी (आप) को अगर एक पार्टी के रूप में बचे रहना है तो इसे अपनी संसदीय महत्वाकांक्षाओं का त्याग करना ही होगा। हाल ही में, एनडीटीवी ने अपने नवीनतम सर्वेक्षण में कहा है कि 'आप' को दिल्ली के संसदीय चुनावों में केवल 1 सीट ही मिलेगी। संभव है कि 1 भी नहीं मिले।

यह स्थिति तब है जबकि इस वर्ष की शुरुआत में 'आप' ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता में आने से रोक दिया था और कांग्रेस को मात्र 8 सीटों पर सिमटने के लिए बाध्य कर दिया था। उसी राजधानी दिल्ली में 'आप' का यह प्रदर्शन औंधे मुंह गिरने से कम नहीं होगा।

उल्लेखनीय है कि अन्य जनमत सर्वेक्षणों में किसी ने भी 'आप' को देश में अन्य किसी स्थान से कोई सीट दी है। इस तरह दिल्ली की चमत्कारी सफलता के बाद पार्टी का संसदीय चुनावों में प्रदर्शन मात्र 1 सीट या शून्य पर भी सिमट सकता है।

स्वतंत्रता आंदोलन के बाद राजनीति में असाधारण सफलता दर्ज कराने वाली पार्टी के लिए यह अंत की शुरुआत होगी? क्या दिल्ली की सफलता 'आप' के लिए इतना बड़ा आधार थी कि यह संसदीय चुनावों में भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करे?

जब से दिल्ली में लोकसभा चुनावों की शुरुआत हुई तब से यह स्पष्ट हो गया था। मार्च के अंत में एबीपी-एसी नील्सन के एक सर्वेक्षण में कहा गया था दिल्ली में सरकार छोड़ने के बाद पार्टी का जनाधार बहुत सिकुड़ गया था।

लेकिन तब भी इसके बारे में भविष्यवाणी की गई थी कि 'आप' दिल्ली में 3 सीटें जीतेगी। यह संख्या उतनी ही थी जितनी कि भाजपा को दी जा रही थी।

ल‍ेकिन नवीनतम सर्वे में कहा गया है कि पार्टी को एक सीट मिल सकती है। और अगर जैसी स्थितियां हैं, वैसी अगर बनी रहीं तो पार्टी को कोई भी सीट नहीं मिलेगी। यह शुरुआती सफलता के बाद असफल होने की स्थिति होगी। इसका परिणाम यह होगा कि पार्टी को सोचना पड़ेगा कि उसकी योजनाओं और क्रियान्वयन में कहां गलती हो गई?

‍ पार्टी के लिए दिल्ली की सफलता शानदार थी लेकिन इसकी सफलता इतनी भी बड़ी नहीं थी कि यह अपने 'आप' को शेष देश के साथ जोड़ सके। इसका एक ही अर्थ है कि पार्टी ने जो दांव खेला वह उल्टा पड़ गया जबकि इसके नेताओं को पता होना चाहिए था कि यह राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है।

अगले पन्ने पर आप का भविष् य...


बेसिरपैर के आरोप लगाने और ऊटपटांग घोषणाएं करने के लिए दिल्ली 'आप' के लिए सुरक्षित जगह थी और यहां सब कुछ केजरीवाल और उनके साथियों की पहुंच में था। उनके पास पर्याप्त पैसा था और लोगों में बहुत सारा उत्साह था, लेकिन सरकार बनाने के ‍बाद यह गलतियों पर ग‍लतियां करती गई।

लेकिन तब तक सभी कुछ ठीक था, क्योंकि लोग समझते थे कि पार्टी की मंशा सही थीलेकिन सरकार बनाने के दलदल में उतरने के बाद केजरीवाल समझ ही नहीं पाए कि वे कैसे इस स्थिति से छुटकारा पाएं और उन्होंने कुर्सी छोड़ने में ही अपनी भलाई समझी।

इस बार वे संसद में अपनी कुछ सीटें चाहते थे लेकिन बिना किसी तैयारी के। उन्होंने एक ऐसी पार्टी बनाई थी, जो कि अपनी शैशवावस्‍था में थी और जिसे कांग्रेस जैसी 100 साल से अधिक पुरानी पार्टी से मुकाबला करना था।

उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि राजनीति कितनी क्रूर हो सकती है और इसमें नौसिखियों के लिए कोई स्थान नहीं होता है जबकि 'आप' पूरी तरह से नौसिखिया है।

न तो पार्टी की कोई विचारधारा है, न कोई रणनीति और न ही क्रियान्वयन का कोई रोडमैप। पार्टी में केजरीवाल के अलावा कोई दूसरा आदमी नहीं है, जो कि लोगों को अपनी बात समझा सके लेकिन वे रातोरात 'आप' के मोदी बन बैठे।

जबकि उन्हें पता होना चाहिए कि मोदी के पास भाजपा है, असीमित संसाधन हैं, बहुत बड़े सहायक हैं, पार्टी का एक ढांचा है, जो कि चुनाव लड़ने और सरकार चलाने का कम से कम 4 दशक का अनुभव रखती है। लेकिन आनन-फानन में सब कुछ करने की केजरीवाल की सबसे बड़ी गलती साबित हुई।

उन्होंने दिल्ली में सफलता हासिल कर ली और वे किसी दूसरी दिल्ली में सफलता पाने की कोशिश करते तो तर्कसंगत बात होती। लेकिन दिल्ली पूरा देश नहीं है और देश का छोटा स्वरूप भी नहीं कहा जा सकता है।

अगर यह दूसरी दिल्ली जीतने की कोशिश करती तो इसके पास लोकसभा में कुछ सीटें भी होतीं लेकिन अब स्थिति यह है कि देश के चुनाव प्रचार में ही यह अप्रासंगिक हो गई है।

यह आदर्शवादी लोगों का एक गुट बनकर रह गई, जो कि यह नहीं समझ सके कि देश का चुनाव बहुत बड़ी बात होती है और इतना जटिल और व्यापक होता है कि केजरीवाल जैसे लोगों के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ की हालत पैदा हो सकती है।

इसलिए लोकसभा चुनाव केजरीवाल और उनकी पार्टी के लिए बहुत बड़ी असफलता सिद्ध होने वाले हैं। अब उन्हें लोकसभा चुनावों के परिणामों को बुरा सपना समझकर भुला देना होगा। अब क्या करें केजरीवाल?

उन्हें फिर से दिल्ली के लोगों में रुचि पैदा करनी होगी और बताना होगा कि उनसे जो गलतियां हुई हैं वे अब भविष्य में दोहराई नहीं जाएंगी और उन्हें फिर से दिल्ली के विधानसभा चुनावों से ही शुरुआत करनी होगी।

इस बार वे भाजपा के अलावा कांग्रेस के भी निशाने पर होंगे, जो कि उनकी सारी कमजोरियों को भली-भांति जान गई है। इसके अलावा, 'आप' को लेकर दिल्ली के लोगों के दिल-दिमाग भी बदल सकते हैं। इसकी 'मारो और भाग जाओ' और मीडिया को गाली देने की रणनीति भी काम नहीं करेगी।

अधिक कमजोर 'आप' के लिए यह और भी कठिन लड़ाई होगी, क्योंकि विपक्ष पहले से ही इसके खिलाफ सफलता हासिल कर चुका है इसलिए 'आप' को अपने राष्ट्रव्यापी अभियान पर तत्काल लगाम लगा देनी चाहिए और केवल दिल्ली पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए। साथ ही, इसे भाजपा को अपना प्रतिद्वंद्वी मानना होगा।

लेकिन अगर पार्टी चुनावों में रणनीतिविहीन रही तो इसका तेजी से क्षरण होगा। इसके नेताओं को पता होना चाहिए कि राजनीति में लोगों के विचार और फैसले बड़ी तेजी से बदलते हैं और अगर यह ऐसा नहीं कर सकी तो 'आप' का राजनीति में बचे रहना भी असंभव हो जाएगा।
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