अपनी ’अनकन्वेन्शनल’ राजनीति को उन्होंने बड़े-बड़े घाघ नेताओं व पार्टियों की मजबूरी बना दिया है और वक्त की करवट को समझते हुए सभी दल कमोबेश उनकी तरह का आचरण करके पाक-साफ़ राजनीति का प्रदर्शन करने को मजबूर हैं।
देश की आम जनता, जो किसी दल विशेष के साथ नहीं है, बेतरह आंदोलित है। केजरीवाल की पार्टी में शामिल होना व उनकी आम आदमी वाली टोपी लगाना फैशन स्टेटमेंट जैसा हो चला है, लेकिन इस सबके बीच भी बहुत से लोगों के मन में कुछ संशय हैं।
क्या केजरीवाल को इस समय देश की बागडोर भी संभालना चाहिए और क्या यह देश के लिए उचित होगा कि जनता के उत्साह का उफ़ान उन्हें चुनावी वैतरणी के पार की उस सबसे ऊंची कुर्सी तक पहुँचा दे? शायद नहीं।
हम जानते हैं कि इस समय भारत के सामने किस तरह की चुनौतियां हैं। चीन की बढ़ी हुई आर्थिक-सामरिक शक्ति और उसके आक्रामक रवैए से हमारा देश रोज़ ही दो-चार हो रहा है। 1992 से लगातार युद्धरत अमेरिका की डोलती आर्थिक स्थिति ने पूरी दुनिया को हिला दिया है और इसके चलते उसके शीर्ष बैंक की देश के बाहर निवेश पर लगाम लगाकर रखने की कोशिशों ने पिछले वर्ष हमारे देश से बहुत-सा विदेशी निवेश वापस खींच लिया जिससे शेयर बाज़ार और भारतीय बैंकिंग पर बहुत असर पड़ा।
घरेलू मोर्चे पर नौकरियों की कमी के कारण आउटसोर्सिंग पर अमेरिका की कटौती ने भारत के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं क्योंकि आईटी सेक्टर की आउटसोर्सिंग ही आज भारत के लिए विदेशी मुद्रा का सबसे बड़ा स्रोत है। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता भी हमारे लिए लंबे समय से खट्टे अंगूर साबित हो रही है।
यह तो है एक बानगी बड़ी समस्याओं की, जिनसे निपटने के लिए बहुत वृहद् योजनाएं बनाकर काम किया जाता है, जैसे कि ईरान हमारा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता होने के कारण उस पर अमेरिकी या संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंध लगने की दशा में एक नाज़ुक संतुलन बनाकर चलना जिससे तेल की आपूर्ति निर्बाध रहे और देश में महंगाई न बढ़े।
दूसरी ओर यह करते समय अमेरिका व संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों से स्वयं को बचाए रखने व ईरान के विरुद्ध प्रतिबंधों को सीमित रखने की कोशिश करने की ज़रूरत भी है। अफ़्रीकी देशों, भारत के आसपास के देशों व पूर्वी एशिया में चीन के प्रभाव के विरुद्ध कुछ छिपी तो कुछ खुली लड़ाई लड़ना, 10-15 या 20 वर्षों में फल देने वाली कूटनीतिक चालों को समझकर उनकी काट निकालना विदेश नीति के अनेक पहलुओं में से एक है।
इन कामों के लिए एक बहुत कूटनीतिक मस्तिष्क और दृढ़ निश्चय आवश्यक है। केजरीवाल ने दृढ़ निश्चय तो दिखा दिया, लेकिन उनकी कूटनीतिक क्षमताओं की परख तो अभी देश के भीतर भी बाकी है। इसके अलावा यह भी सत्य है कि एक अकेला चना भाड़ नहीं फ़ोड़ सकता।
यानी केजरीवाल आईआईटी के ज्ञानवान छात्र हों तो भी उन्हें अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को समझने और उसकी चालों में मदद के लिए अपने साथ ऐसे लोगों की टीम चाहिए जो गहन प्रशासकीय समझ भी रखती हो।
इसके अभाव में भारत वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइज़ेशन जैसे संगठनों से उचित मोलभाव करके अपने लाभ का ध्यान नहीं रख सकेगा। चीन व पाकिस्तान की दोस्ती के मद्देनज़र अपनी तैयारी को धार देना व समान चिंताएँ रखने वाले देशों के साथ निकट सहयोग अति आवश्य क है, जिसे कोई दूरदृष्टा, दृढ़निश्चयी नेता ही कर सकेगा। यहां केजरीवाल की समस्या यह है कि वैश्विक परिदृश्य पर कोई भी देश ऐसे नेता के साथ खड़ा होने में संकोच करेगा जो कल भी अपनी आज की नीति पर कायम रहेगा, इसमें संदेह हो।
कूटनीतिक मंच पर कितने कारगर होंगे केजरीवाल... पढ़ें अगले पेज पर...
यह भी सच है कि अधिकांशत: अंतरराष्ट्रीय मसलों पर सरकार की राय बनाने का काम नेताओं के नहीं, भारतीय विदेश सेवा व भारतीय प्रशासकीय सेवा के अधिकारियों के जिम्मे रहता है व उनकी टिप्पणियों, रिपोर्टों तथा पूरी दुनिया के भारतीय दूतावासों से आने वाली जानकारी के आधार पर मंत्री, उनके मंत्रालय व प्रधानमंत्री देश की नीति निर्धारित करते हैं। इसमें एक महत्वपूर्ण अंश खुफ़िया तंत्र द्वारा एकत्रित जानकारी का भी रहता है।
लेकिन, इतिहास गवाह है कि बिना प्रशासकीय समझ वाले प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने इस सारे तामझाम के मौजूद रहते हुए भी श्रीलंका में भारतीय फ़ौज भेजने जैसी भारी ग़लती की, नेहरूजी ने चीन से धोखा खाया, इंदिरा गांधी जैसी सूझबूझ वाली नेत्री ने जरनैलसिंह भिंडरावाले को पाकिस्तान को जवाब के तौर पर तैयार होने दिया जिससे देश, विशेषकर पंजाब ने आतंकवाद का दंश लंबे समय तक झेला, अटल बिहारी वाजपेयी ने सदाशयता दिखाते हुए पाकिस्तान की यात्रा बस से की और बदले में कारगिल का उपहार पाया।
स्पष्टत:, हर तरह की मदद हासिल होने के बाद भी कूटनीति के ऐसे जानकार नेताओं के धोखा खाने का अर्थ यह भी है कि ऐसे समय में एक नवागंतुक नेता के हाथ में देश की बागडोर देना घातक कदम सिद्ध हो सकता है, जबकि देश के सामने प्रस्तुत सभी समस्याएँ बेहद कठिन व द्विगुणित हों व उनमें बेहद नज़ाकत वाला संतुलन बना रहना ज़रूरी हो।
अरविन्द केजरीवाल एक साफ़ दिल इंसान तो हैं, लेकिन लंबे समय में फल देने वाले दांव-पेंच में सिद्धहस्त नहीं हैं, या यूं कहें कि उनके स्वभाव के कारण बरसों तक चलने वाली शह और मात उनकी विशेषता नहीं है।
कम प्रशासनिक अनुभव भी उनके नंबर कम करता है। हालांकि वे कहते हैं आम आदमी को चैलेंज मत करो वह सब कुछ कर सकता है, लेकिन यह बात हर जगह सच साबित होगी इसमें संदेह है और इस समय में इसकी कीमत राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पटल पर चुकाना भारी भूल साबित होगा।