कांग्रेस के नेतृत्व में पहली बार गठबंधन सरकार बनी

-पार्थ अनिल

Webdunia
मंगलवार, 13 मई 2014 (18:32 IST)
14 वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव 1999 में सितंबर-अक्टूबर के दौरान हुए थे। इस लिहाज से 15वीं लोकसभा के चुनाव 2004 में सितंबर-अक्टूबर के दौरान होना थे।लेकिन भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के रणनीतिकारों ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को निर्धारित समय से 5 महीने पहले ही चुनाव कराने की सलाह दे डाली।

वाजपेयी को समझाया गया कि 'फील गुड फैक्टर' और अपने प्रचार अभियान 'इंडिया शाइनिंग' की मदद से राजग सत्ता विरोधी लहर को बेअसर कर देगा और स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लेगा।

इस सोच का आधार यह था कि राजग शासन के दौरान अर्थव्यवस्था में लगातार वृद्धि दिखाई दी थी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विनिवेश को पटरी पर लाया गया था। इसके अलावा भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार भी बेहतर हालत में था तथा उसमें 100 अरब डॉलर से अधिक राशि जमा थी।

यह उस समय दुनिया में 7वां सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार था और भारत के लिए एक रिकॉर्ड था। सेवा क्षेत्र में भी बड़ी संख्या में नौकरियां पैदा हुई थीं। इसी सोच के बूते समय से पूर्व चुनाव कराने की घोषणा कर दी गई। 20 अप्रैल से 10 मई 2004 के बीच 4 चरणों में यह चुनाव संपन्न हुआ।

1990 के दशक के अन्य सभी लोकसभा चुनावों की तुलना में इन चुनावों में दो व्यक्तित्वों (वाजपेयी और सोनिया गांधी) का टकराव अधिक देखा गया, क्योंकि कोई तीसरा ठोस विकल्प मौजूद नहीं था।

अधिकांश क्षेत्रीय दल भाजपा के साथ राजग के कुनबे में शामिल थे। हालांकि द्रमुक और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी गुजरात दंगों के मुद्दे पर राजग से अलग हो चुकी थी।

दूसरी तरफ कांग्रेस की अगुवाई में भी राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी मोर्चा बनाने की कोशिश हुई लेकिन यह कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई। हालांकि कुछ राज्यों में स्थानीय स्तर पर कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों में चुनावी तालमेल हो गया। यह पहली बार था कि कांग्रेस ने संसदीय चुनाव में इस तरह के तालमेल के साथ चुनाव लड़ा।

वामपंथी दलों विशेषकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) ने अपने प्रभाव वाले राज्यों पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में अपने दम कांग्रेस और राजग दोनों का सामना करते हुए चुनाव लड़ा और कांग्रेस और राजग दोनों का सामना किया।

पंजाब और आंध्रप्रदेश में उन्होंने कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल किया। तमिलनाडु में वे द्रमुक के नेतृत्व वाले जनतांत्रिक प्रगतिशील गठबंधन में शामिल थे। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस और भाजपा में से किसी के भी साथ न जाते हुए अकेले ही चुनाव लड़ा।

अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग ने इस चुनाव में अपनी उपलब्धियों को तो लोगों के सामने पेश किया ही, साथ ही सोनिया गांधी के विदेशी मूल को भी कांग्रेस के खिलाफ मुख्य मुद्दे के तौर जोर-शोर से उठाया।

दूसरी ओर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने सूखे से निबटने में सरकार की नाकामी, किसानों की आत्महत्या, महंगाई आदि के साथ-साथ 2002 के गुजरात दंगों को राजग के सरकार के खिलाफ मुद्दा बनाया।

राजग का नेतृत्व और उसके चुनावी रणनीतिकार सत्ता विरोधी लहर को थामने में नाकाम रहे। 13 मई को आए चुनाव नतीजों में राजग की हार हुई और कांग्रेस अपने सहयोगी दलों तथा वाम मोर्चा, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बाहरी समर्थन के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई।

कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को 218 सीटें प्राप्त हुईं, जबकि भाजपा नीत राजग को महज 181 सीटें मिलीं। कांग्रेस ने चुनाव के बाद अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर औपचारिक रूप से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का गठन किया और वामपंथी मोर्चा, समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी के समर्थन से लोकसभा में कुल 335 सदस्यों का समर्थन जुटाकर सरकार बनाई।

चुनाव पूर्व कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी को ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा माना जा रहा था, चुनाव नतीजों के बाद राष्ट्रपति ने भी सोनिया को ही सरकार बनाने का न्योता दिया लेकिन अप्रत्याशित रूप से सोनिया ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर सभी को हैरान कर दिया।

उन्होंने इस पद के लिए डॉ. मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित किया। कांग्रेस और यूपीए के अन्य दलों ने भी सोनिया की इच्छा का सम्मान करते हुए मनमोहन सिंह को अपना नेता चुना और इस तरह वे प्रधानमंत्री बने। वरिष्ठ माकपा नेता सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष चुने गए।

डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार पूरे 5 साल चली। इस सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून जैसी महत्वाकांक्षी योजना लागू की जिससे ग्रामीण क्षेत्र की बेरोजगारी दूर करने में काफी हद तक मदद मिली।

इसी सरकार ने सूचना का अधिकार कानून भी लागू किया जिसके जरिए स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर हुए। इस सरकार के कार्यकाल के दौरान अर्थव्यवस्था की गाड़ी भी कमोबेश पटरी पर रही और औद्योगिक एवं कृषि उत्पादन के क्षेत्र में भी संतोषजनक प्रदर्शन रहा।

इस दौरान एक उल्लेखनीय बात यह भी रही कि नरसिंहराव सरकार में वित्तमंत्री के रूप में उदारीकरण की आधारशिला रखने वाले डॉ. मनमोहन सिंह अपने प्रधानमंत्रित्वकाल की इस पारी में अपने मनमाफिक आर्थिक सुधार लागू नहीं कर पाए।

इसकी अहम वजह यह रही कि उनकी सरकार वामपंथी दलों के समर्थन से चल रही थी और वाम दलों ने आर्थिक नीतियों के मामले में सरकार पर पूरी तरह अपना अंकुश रखा।

वाम दलों के साथ मनमोहन सिंह सरकार के टकराव की नौबत 2009 के चुनाव से कुछ महीने पहले तब आई, जब अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा को लेकर समझौता होना था।

वाम दल इस समझौते के सख्त खिलाफ थे जबकि मनमोहन सिंह ने इस समझौते अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। वे हर हाल में इस समझौते को मूर्तरूप देने पर आमादा थे। वे इस मामले में वाम दलों के दबाव में नहीं आए और आखिरकार वाम दलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

इसके बाद यूपीए ने जोड़-तोड़ के जरिए किसी तरह अपना बचा हुआ कार्यकाल पूरा किया। कांग्रेस के नेतृत्व में यह पहली गठबंधन सरकार थी और इसने अपना कार्यकाल पूरा किया था। इसी पूरी पृष्ठभूमि में हुआ 15वीं लोकसभा के लिए 2009 का आम चुनाव।

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