भारतीय राजनीति के इन 10 वर्षों की कहानी किसी थ्रिलर उपन्यास से कम नहीं रही। रहस्य-रोमांच, यारी-दुश्मनी, जोड़-तोड़, जासूसी, षड्यंत्र और अपराध से भरपूर है यह कहानी। इन 10 वर्षों के दौरान कई बड़े घोटाले हुए तो इन घोटालों का पर्दाफाश करने के लिए नाना प्रकार के हथकंडे भी अपनाए गए।
राजनीतिक दलों और गठबंधनों में टूट-फूट के साथ-साथ 'पालाबदल' के भी नए-नए कीर्तिमान स्थापित हुए। सरकार चलाने का ही नहीं, सरकार बनने का भी संकट रहा। लोकतंत्र में जो घटना कल्पना के स्तर पर थी, वह यथार्थ में तब्दील हो गई।
इसी दौर में देश की एक सरकार महज 1 वोट से विश्वास मत हारी और प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। रहस्य और रोमांच से भरी इस राजनीतिक पटकथा की शुरुआत हुई थी 1987 से।
1989 के आम चुनाव का एक ही मुद्दा था बोफोर्स तोपों की खरीदी में हुई घूसखोरी और निशाने पर थे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी। इस चुनाव के हीरो थे विश्वनाथ प्रताप सिंह यानी वीपी सिंह।
राजीव गांधी मंत्रिमंडल में पहले वाणिज्य, फिर वित्त और अंत में रक्षामंत्री रहे वीपी सिंह के हाथ में बोफोर्स का मुद्दा आ गया और देखते ही देखते 'मिस्टर क्लीन' की छवि वाले राजीव गांधी की छवि रक्षा सौदों में दलाली खाने वाले 'महाभ्रष्ट राजनेता' की बन गई।
बोफोर्स कांड की हकीकत का पता तो आज तक भी नहीं चल पाया, लेकिन यह मुद्दा राजीव गांधी के सत्ता से बेदखल होने का सबब जरूर बन गया। 1984 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे, लेकिन महज 3 साल के भीतर ही यानी 1987 आते-आते उनकी उलटी गिनती शुरू हो गई।
इधर वीपी सिंह ने बगावत की और उधर हरियाणा विधानसभा का चुनाव कुरुक्षेत्र का युद्ध बन गया जिसमें चौधरी देवीलाल महानायक बनकर उभरे। दक्षिण में एनटी रामाराव का अभ्युदय पहले ही हो चुका था।
1984 के अर्द्धमूर्च्छित योद्धा भी उठ खड़े हुए... पढ़ें अगले पेज पर...