कुल मिलाकर 1977 से 1980 के बीच की कहानी केंद्र में बनी पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के दर्दनाक पतन और इंदिरा गांधी की अगुवाई में कांग्रेस की सत्ता में शानदार वापसी की कहानी है। इस दौरान वह सब कुछ हुआ जिसकी आम जनता को कतई उम्मीद नहीं थी।
मार्च 1977 में लोकसभा के चुनाव हुए थे। जयप्रकाश नारायण जनता पार्टी के प्रणेता थे, लेकिन उन्होंने पहले से ही तय कर लिया था कि वे कोई पद नहीं लेंगे। जनता पार्टी ने किसी एक नेता को आगे रखकर चुनाव नहीं लड़ा था। जनता पार्टी रूपी इस कुनबे में खांटी कांग्रेसी मोरारजी देसाई थे तो मधु लिमये, राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडीस और मधु दंडवते जैसे समाजवादी भी थे।
संघ परिवार के अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख थे तो 1967 में कांग्रेस से बगावत कर अलग हो चुके चौधरी चरण सिंह और आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत का झंडा उठाने वाले चंद्रशेखर, मोहन धारिया, रामधन और कृष्णकांत की युवा तुर्क चौकड़ी भी।
इस जमात में जगजीवन राम तथा हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे कांग्रेसी भी आ मिले थे, जो आपातकाल के दौरान पूरे समय इंदिरा गांधी के साथ रहते हुए सत्ता-सुख भोगते रहे थे। चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री पद के 3 दावेदार उभरे- मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चौधरी चरण सिंह।
जनता पार्टी संसदीय दल ने नेता चुनने का अधिकार जेपी और आचार्य जेबी कृपलानी को सौंप दिया था। दोनों बुजुर्ग नेताओं ने प्रधानमंत्री पद के लिए मोरारजी के नाम पर मुहर लगाई। चरण सिंह गृहमंत्री बने और जगजीवन राम रक्षामंत्री।
24 मार्च 1977 को मोरारजी मंत्रिमंडल ने शपथ ली। बमुश्किल 2 महीने बाद ही 27 मई 1977 को बिहार का बहुचर्चित बेलछी कांड हो गया। दबंग कुर्मियों ने करीब 1 दर्जन दलितों का नरसंहार कर दिया। इंदिरा गांधी ने बेलछी का दौरा किया। वे हाथी पर सवार होकर बेलछी पहुंची थीं।
देशी-विदेशी मीडिया ने उनकी यह यात्रा खूब चर्चित हुई। दरअसल, यही घटना इंदिरा की वापसी की शुरुआत बन गई। कुछ ही दिनों बाद आपातकाल की ज्यादतियों की जांच के लिए गठित शाह आयोग की सिफारिशों के आधार पर इंदिरा गांधी को गिरफ्तारी हो गईजिसके विरोध में संजय गांधी की ब्रिगेड ने देशभर में तूफान खड़ा कर दिया। हजारों कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने अपनी नेता के समर्थन में गिरफ्तारियां दीं।
इस मुद्दे पर सरकार में अंतरविरोध पैदा हो गए। गृहमंत्री के नाते गिरफ्तारी का आदेश चरण सिंह का था। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई इससे सहमत नहीं थे। और भी मसलों के चलते मतभेद बढ़ते गए।
आखिरकार चरण सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। थोड़े ही दिनों बाद चरण सिंह ने अपनी ताकत दिखाने के लिए दिल्ली के बोट क्लब पर एक विशाल किसान रैली की। माना जाता है कि यह रैली न सिर्फ तब तक के बल्कि अब तक के इतिहास की सबसे बड़ी रैली रही। रैली के बाद मान-मनौवल का दौर शुरू हुआ।
चरण सिंह दोबारा मंत्रिमंडल में शामिल हुए। इस बार वे उपप्रधानमंत्री बने और साथ में वित्त मंत्रालय मिला। संतुलन साधने के लिए बाबू जगजीवन राम भी उपप्रधानमंत्री बनाए गए। यह पहला मौका था, जब देश में एकसाथ 2 उपप्रधानमंत्री बने।
यह कहानी 1978 के आखिरी महीने की है। इसी दौरान एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में कांग्रेस का एक और विभाजन हो चुका था। पार्टी के एक धड़े का नेतृत्व इंदिरा गांधी कर रही थीं जबकि दूसरे धड़े के प्रमुख नेता थे यशवंतराव चव्हाण, ब्रह्मानंद रेड्डी, देवराज अर्स आदि।
इंदिरा गांधी नवंबर 1978 में कर्नाटक की चिकमंगलूर लोकसभा सीट से उपचुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंच चुकी थीं। इसी बीच जनता पार्टी में मधु लिमये ने दोहरी सदस्यता का मुद्दा भी उठा दिया था। बहस छिड़ गई थी कि जनता पार्टी में शामिल जनसंघ के लोग एक ही साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते।
इस बहस ने पार्टी के भीतर पहले जारी घटकवाद को सतह पर ला दिया। इसी घटकवाद के चलते मोरारजी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्रालय संभाल रहे राजनारायण को इस्तीफा देना पड़ा और उत्तरप्रदेश में रामनरेश यादव, बिहार में कर्पूरी ठाकुर और हरियाणा में चौधरी देवीलाल भी एक-एक कर मुख्यमंत्री पद से हटा दिए गए।
ये तीनों ही नेता पूर्व समाजवादी/ लोकदल घटक के थे। माना गया कि चरण सिंह को नीचा दिखाने के लिए मोरारजी और जनसंघ के नेताओं से मिलकर इन तीनों मुख्यमंत्रियों को हटवाया था। चरण सिंह इसी सबके चलते मोरारजी से हिसाब चुकता करने का मौका तलाशने लगे और उनकी महत्वाकांक्षा फिर अंगड़ाई लेने लगी।
इंदिरा और संजय गांधी ने भी उनकी महत्वाकांक्षा को सहलाने का काम किया। आखिरकार जुलाई 1979 में चरण सिंह ने बगावत कर दी। उनके खेमे के करीब 90 सांसदों ने मोरारजी देसाई सरकार से समर्थन वापस लेकर अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया।
मधु लिमये, राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडीस आदि अधिकांश पुराने समाजवादी चरण सिंह के साथ हो गए। चरण सिंह के नेतृत्व में जनता पार्टी (सेकुलर) के नाम से नई पार्टी अस्तित्व में आ गई जिसका नाम थोड़े ही दिनों बाद लोकदल रख दिया गया।
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