मोदी पर संघ कैसे रखेगा काबू

उमेश चतुर्वेदी
मौजूदा आम चुनावों की बात है... दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की बैठक बुला रखी थी... इस बैठक का मकसद था चुनावों का भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में बेहतर प्रबंधन... मार्च के आखिरी हफ्ते में हुई इस बैठक में बेहतर चुनाव प्रबंधन को लेकर ढेर सारी बातें हुईं... लेकिन वरिष्ठ स्वयंसेवकों के मन में एक बात गहरे तक बैठी हुई थी... वे मौके की ताक में थे और भोजन या नाश्ता करते वक्त उन्हें मौका हाथ लग गया... उनमें से एक ने यह सवाल अपने से वरिष्ठ उस कार्यकर्ता से पूछ ही लिया... कि संघ नरेन्द्र मोदी को कैसे नियंत्रित करेगा। सवाल पूछते वक्त वे सारे संदर्भ भी दिए गए कि किस तरह मोदी ने अपने तईं गुजरात में संघ को ठेंगे पर रखा... तर्क यह भी था कि किस तरह संजय जोशी को किनारे लगाया गया और तर्क यह भी था कि कैसे विश्व हिन्दू परिषद के महासचिव प्रवीण तोगड़िया से उनकी अदावत रही है... तर्क यह भी दिया गया कि मोदी कठोर हैं और अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझते। वरिष्ठ स्वयंसेवक ने सवाल पूछने वाले स्वयंसेवकों को समझाया कि जब नेहरू संघ को काबू नहीं कर पाए... जब इंदिरा उसे खत्म नहीं कर पाईं तो नरेन्द्र मोदी अपने ही स्वयंसेवक हैं और उन्हें भी अपने तईं काबू में कर लिया जाएगा... और अव्वल तो वह संघ की विचारधारा से अलग जाएंगे ही नहीं।
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नरेन्द्र मोदी को लेकर जिस तरह एग्जिट पोल नतीजों ने सकारात्मक रुझान दिखाए हैं, उससे एक हद तक साबित होता है कि मोदी इस देश के नए खेवनहार बनने ही वाले हैं। चूंकि इसकी संभावना ज्यादा बढ़ गई है लिहाजा संघ और उनके बीच भावी रिश्तों को लेकर पड़ताल होनी ही चाहिए।

इस पड़ताल के पहले संघ से जुड़े लोगों के उपरोक्त प्रसंग का अपना महत्व है। इस प्रसंग से एक बात जाहिर है कि संघ के अधिसंख्य कार्यकर्ताओं में भी नरेन्द्र मोदी के भावी कदमों और उनके शासन की रूपरेखा को लेकर संदेह जरूर है। इसके बावजूद अगर संघ ने हालिया चुनाव अभियान में अपनी पूरी ताकत झोंकी तो उसकी अपनी खास वजह है।

वजह यह है कि उसे नरेन्द्र मोदी के रूप में खुद को उबारने वाली एक ऐसी शख्सियत भी मिल गई है... जो उसके ही अपने परिवार से है। पिछले 10 साल से जितने हमले मोदी पर हुए हैं, उससे कहीं ज्यादा हमले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी हुए हैं।

हिन्दू उग्रवाद के नाम पर उसके कार्यकर्ताओं को छोड़िए, इंद्रेश कुमार जैसे वरिष्ठ स्वयंसेवक तक को परेशान किया गया। प्रज्ञा भारती की गिरफ्तारी हुई और उनके खिलाफ एक भी मामला अब तक साबित नहीं किया जा सका है।

लिहाजा इन वजहों से शायद संघ को लगता रहा कि अगर इस बार उसने केंद्र की सत्ता नहीं बदली तो अगले 5 साल उसके अस्तित्व के लिए ज्यादा चुनौतीभरे होंगे इसीलिए संघ ने अपनी पूरी ताकत और कार्यकर्ताओं की फौज चुनाव मैदान में झोंक दी।

मोदी ने भी इन चुनावों में एक भी ऐसा कदम नहीं उठाया जिससे लगा हो कि संघ की वे अवमानना कर रहे हों। चुनाव अभियान की शुरुआत के पहले और चुनाव अभियान के खात्मे के बाद बलिया की आखिरी रैली से वे सीधे दिल्ली स्थित संघ मुख्यालय ही पहुंचे।

संघ के लिए भी फायदेमंद था मोदी का साथ... अगले पन्ने पर...


जाहिर है कि इस बैठक में उन्होंने अपने भावी कार्यक्रमों की चर्चा की तो संघ का आभार भी जताया। बेशक मोदी का साथ देने से संघ का भी अपना फायदा हुआ है। संघ के मोटे आंकड़ों के मुताबिक मोदी को नेता घोषित करने के बाद संघ की शाखाओं और कार्यकर्ताओं में भी बढ़ोतरी हुई है।

उससे भी बड़ी बात यह कि संघ को लेकर अब तक दबी जुबान से समर्थन करने की परिपाटी के ठीक उलट संघ का खुलकर साथ देने वालों की संख्या बढ़ गई है।

अगर मोदी की अगुआई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन जीत जाता है और मोदी सरकार बनाते हैं तो उनके ही सामने नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए भी असल चुनौती आने वाली है।

सवाल यह है कि क्या नरेन्द्र मोदी अपने स्वयंसेवक धर्म का निर्वाह करते हुए संघ की प्रेरणा वाले उन 3 महत्वपूर्ण एजेंडे को लागू करने का प्रयास करेंगे जिन्हें 1998 से भारतीय जनता पार्टी ने किनारे लगा रखा है।

ये तीनों प्रमुख विषय हैं- समान नागरिक संहिता, जम्मू-कश्मीर को लेकर जारी धारा 370 को हटाना और अयोध्या में राम मंदिर बनाना। सुशासन और महंगाई पर काबू पाने का शायद ही कोई विरोध करे। लेकिन ये 3 एजेंडे ऐसे हैं जिन पर आगे बढ़ना आज तक की राजनीतिक परिपाटी और माहौल के मुताबिक आग से खेलना है।

यह बात और है कि चुनाव अभियान में मोदी ने इन तीनों ही मुद्दों को न सिर्फ छुआ, बल्कि मतदाताओं को लुभाने की कोशिश भी की और इनके जरिए नई बहस की शुरुआत भी की।

पठानकोट के पास श्यामाप्रसाद मुखर्जी के शहीदी दिवस पर आयोजित रैली में उन्होंने धारा 370 को लेकर नई बहस यह कहकर छेड़ दी कि इसके संबंधित पक्षों को इस धारा से क्या फायदा हुआ और क्या नुकसान, इसका भी आकलन होना चाहिए।

मोदी ने समान नागरिक संहिता का सवाल जरूर अब तक नहीं उठाया है। लेकिन यह भी सच है कि चुनाव अभियान में उन्होंने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को अल्पसंख्यकों के विकास की दौड़ में पीछे रह जाने से जरूर जोड़ा।

पूर्वी उत्तरप्रदेश में चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुए फैजाबाद के मंच से राम मंदिर की तस्वीर दिखाकर मोदी के रणनीतिकारों ने संदेश तो दे ही दिया।

संघ का जोर स्वदेशी की अवधारणा को भी विकसित करने पर रहा है। मोदी औद्योगीकरण के भी पक्षधर रहे हैं। संघ गांव, गाय और गंगा की रक्षा की बात करता रहा है। मोदी ने शहरीकरण को बढ़ावा देने की बात चुनाव घोषणा पत्र में की ही है।

अलबत्ता गाय और गंगा की रक्षा के साथ भारतीय भाषाओं के संरक्षण की बात चुनाव घोषणा पत्र में की गई है। जाहिर है कि इन मुद्दों पर संघ मोदी से अपेक्षा रखेगा कि वे उसकी इच्छाओं का ध्यान रखें और शासन तंत्र इसके साथ ही आगे बढ़े।

संघ की सोच है कि व्यक्ति से संगठन बड़ा है... लिहाजा संघ भारतीय जनता पार्टी को मजबूत रखने की कोशिश करेगा... जबकि गुजरात के अनुभव तो उलटे रहे हैं, जहां पार्टी मोदी के मुकाबले कमजोर रही है।

बेशक, ऐसे मसलों पर गुजरात में संघ ने हस्तक्षेप न किया हो... लेकिन यह भी तय है कि वह केंद्र में मोदी को निरंकुश नहीं होने देगा। याद कीजिए वाजपेयी सरकार की श्रम नीतियों और उदारीकरण के खिलाफ संघ के ही वरिष्ठ नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी ने अभियान छेड़ दिया था।

यह बात और है कि वाजपेयी खुद भी वरिष्ठ स्वयंसेवक रहे, फिर वे संघ को साधना भी जानते थे लिहाजा ठेंगड़ी के निधन के बाद कोई दूसरा बड़ा स्वयंसेवक उनके खिलाफ सिर नहीं उठा सका।

लेकिन मोदी के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। उनसे बड़े-बड़े स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी दोनों जगह मौजूद हैं लिहाजा संघ और भावी सरकार में टकराव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।

( लेखक टेलीविजन पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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