जानिए कैसे बना कबूतर डाकिया?

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पुराने समय में ही नहीं, बल्कि 19 वीं सदी की शुरुआत में होने वाले पहले विश्वयुद्ध तक कबूतर से संदेश भेजा जाता था। कबूतरों में भी होमिंग प्रजाति इसके लिए विशेष रूप से जानी जाती थी। होमिंग प्रजाति के कबूतरों की विशेषता थी कि वे उन्हें एक जगह से अगर किसी जगह के लिए भेजा जाता तो वे अपना काम करने के बाद वापस लौटकर अपनी जगह आते थे। इससे संदेश पहुंच जाने की पुष्टि भी हो जाती थी।

बताया जाता है कि होमिंग प्रजाति के कबूतर अपनी जगह से 1600 किमी आगे उड़कर जाने पर भी रास्ता भटके बिना वापस लौट आते थे। उनके उड़ने की रफ्तार भी 60 मील प्रति घंटा होती थी, जोकि संदेश एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के लिए पर्याप्त थी।

पक्षी-विज्ञानी बताते हैं कि ये कबूतर सूर्य की दिशा, गंध और पृथ्वी के चुम्बकत्व से वापस लौटने की दिशा तय करते थे। टेलीग्राफ, टेलीफोन और संदेश पहुंचाने की नई व्यवस्थाओं के साथ कबूतर संदेश भेजना खत्म हो गया।
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