ग़ालिब का ख़त-31

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भाई साहिब,
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जी चाहता है बातें करने को। हक़ तआ़ला अब्दुल सलाम की माँ को श़िफ़ा दे और उसके बच्चों पर रहम करे। यह जो तप और खाँसी मुज़मिन हो जाती है, तो यह बीमारी नहीं है, रोग है। इस तरह के मरीज़ बरसों जीते हैं और अगर क़िस्मत में होता है तो अच्छे भी हो जाते हैं। कलसूम क माँ का दूध न पिलवाओ। दाई रख लो। मरीज़ा को भी इफ़ाक़त रहेगी और लड़की भी राहत पाएगी।

मुझको देखो। कहाँ ज़ैनउलआबदीन और उसकी बीवी मरे और दो बच्चे छोड़ जाए। और उनमें से एक मैं ले लूँ। मुख़्तसर कहता हूँ। आज तेरहवाँ दिन है कि हुसैन अ़ली ने आँख नहीं खोली। दिन-रात तप और ग़फ़लत और बेखुदी। कल बारहवाँ दिन मसहिल दिया था। चार दस्त आए। मदार दो-चार बार दवा और एक-दो आश जौ पर है, अंजाम अच्छा नज़र नहीं आता। दादी उसकी बीमार। रोज़ दोपहर को लर्जा़ चढ़ता है। आख़िर रोज़ फुर्सत हो जाती है। ज़हर क़ज़ा और अस्र वक़्त पर पढ़ लेती है।

तमाशा यह कि तारीख़ दोनों के तप की एक है। भाई, बीवी की तो इतनी फ़िक्र नहीं। लेकिन हुसैन अ़ली की बीवी ने मार डाला। मैं उसको बहुत चाहता हूँ, ख़ुदा उसको बचा ले और मैं उसको दुनिया में छोड़ जाऊँ। सूखकर काँटा हो गया है। मैंने आगे तुमको नहीं लिखा। यहाँ बड़ी बीमारी फैल रही है। और कोई बीमारी-सी बीमारी, तपै हैं रंगारंग, बेश्तर बारी की, यानी अगर घर में दस आदमी हैं तो छह बीमार होंगे और चार तंदुरुस्त और इन छह में से तीन अच्छे हो जाएँगे तो वे चार बीमार होंगे, आज तक अंजाम बख़ैर था। अब लोग मरने लगे। हवा में सम्मीयत पैदा हो गई। क़िस्से तो यों रहे -

रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमां
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या

  मकतूब अलै से दूना महसूल लिया गया। ख़ाही न ख़ाही काँटा बाँट रखिए। काँटे का ख़ार-ख़ार अलग। तोलने का क़िस्सा अलग। ख़त भेजना ना हुआ, एक झगड़ा हुआ। एक मुसीबत हुई। आज दसवीं मुहर्रम को यह ख़त लिखा है।      
यह डाक का सरिश्ता कैसा बिगड़ा। मैंने अपने नज़दीक अज़ रू-ए-एहतियात बैरंग ख़त भेजना इख़्तियार किया था, गो बमक़्तज़ा--वहम हो। ख़त जब डाकघर में जाता था, रसीद मिलती थी। पोस्टपेड की लाल मुहर, बैरंग की सियाह मुहर, ख़ातिर जमा हो जाती थी। डाक किताब को देखकर याद आ जाता था कि फ़लाना ख़त किस दिन भेजा है और किस तरह भेजा है। अब डाकघर में एक संदूक मुँह खुला हुआ धर दिया है।

जाए ख़त को उसमें फेंके और चला आए, न रसीद, न मुहर, न मशाहिदा, ख़ुदा जाने वह ख़त रवाना होगा, या न होगा। अगर रवाना भी हुआ, तो वहाँ पहुँचने पर डाक के हरकारे को न इनाम का लालच, न सरकार को महसूल की तमाअ़। न दिया हरकारे को या दिया, हरकारे को न पहुँचाया। अगर ख़त न पहुँचा, तो भेजने वाला किस दस्तावेज से दावा करेगा। मगर हाँ, चार आने देकर रजिस्ट्री करवाए। हम दूसरे-तीसरे दिन जाबजा ख़त भेजने वाले रुपया, आठ आने रजिस्ट्री को कहाँ से लाएँ। अहयानन हमने तीन माशे समझकर आध आने का स्टांप लगा दिया। वह खत दो रत्ती बढ़ती निकला।

मकतूब अलै से दूना महसूल लिया गया। ख़ाही न ख़ाही काँटा बाँट रखिए। काँटे का ख़ार-ख़ार अलग। तोलने का क़िस्सा अलग। ख़त भेजना ना हुआ, एक झगड़ा हुआ। एक मुसीबत हुई। आज दसवीं मुहर्रम को यह ख़त लिखा है। कल स्टांप के टुकड़े मँगवाऊँगा। सरनामा पर लगाकर रवाना करूँगा। अंधेरी कोठरी का तीर है। लगा लगा, न लगा न लगा।

ख़ुदा के वास्ते इस ख़त का जवाब जल्द लिखना। अ़ब्दुल सलाम की माँ का मुफ़स्सल हाल लिखना। बद-हवास हूँ, मुझको माफ़ रखना। हाफ़िज जी को दुआ़, मुंशी अ़ब्दुल लतीफ़ को दुआ़।

3 अक्टूबर 1854 ई. असदुल्ला
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