ग़ालिब का ख़त-33

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पीर-ओ-मुर्शिद,
Aziz AnsariWD
मुझ पर इताब क्यों है? न मैं तुम तक आ सकता हूँ, न तुम तशरीफ़ ला सकते हो। सिर्फ़ नामा व पयाम। सो आप ही याद कीजिए कि कितने दिन से आपने अपनी और बच्चों की ख़ैर-ओ-आ़फ़ियत नहीं लिखी। शेख़ वज़ीरुद्‍दीन पहुँचे होंगे। मिर्जा़ हसीन अ़ली बेग़ पहुँचे होंगे। बारे फ़रमाइए। कल से रमज़ान उल मुबारक तशरीफ़ लाए हैं।

कल दिन-भर तो गर्मी रही और शाम से पानी तो बर्फ़ हो गया है। और हवा का यह आलम है कि रात को मैंने रज़ाई ओढ़ी थी। इस हवा का ऐतबार नहीं। अभी मंज़िल दूर है। हाँ साहिब, मियाँ तफ़्ता हम पर खफ़ा हो गए हैं। दो-दो हफ्ते से उनका ख़त नहीं आया। ख़ुदा जाने कहाँ हैं, क्या करते हैं, किस शग़्ल में हैं। आपको अगर उनका हाल मालूम हो तो मुझको भी इत्तिला दीजिए।

हमने अपने घरों में यह रस्म देखी है कि जहाँ लड़का आठ-सात बरस का हुआ और रमज़ान आया तो उसको रोज़ा रखवाते हैं और नमाज़ पढ़वाते हैं। मुझको शब को यह ख़याल आया कि कहीं ऐसा न हो कि बेगम को अब के साल आप रोज़ा रखवाएँ। अभी उसकी उम्र ही क्या है? नवें-दसवें बरस रोज़ा रखवाना-बहरहाल, इस हाल से मुझे अगाई दो और अपना और अपने रोज़े व शग़्ल-ए-हर रोज़ा का हाल लिखो।

मुंशी अ़ब्दुल लतीफ का हाल लिखो कि वह कैसे हैं? रोज़ा ज़रा समझकर रखें। कहीं ऐसा न हो कि गर्मी की ताब न लाएँ और रोज़ा रखकर रंजूर हो जाएँ। मेरी तरफ़ से सबको दुआ़ पहुँचे और हुसैन अ़ली ख़ाँ की तरफ़ से सबक बंदगी और सलाम, और शायद जैसे अ़ब्दुल सलाम और बेगम है, उनको दुआ़ पहुँचे।

19 मई 1855 ई. असदुल्ला

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