ग़ालिब का ख़त-34

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Aziz AnsariWD
लो साहिब! और तमाशा सुनो। आप मुझको समझाते हैं कि तफ़्ता को आजुर्दा न करो। मैं तो उनके ख़त के न आने से डरा था कि कहीं मुझसे आजुर्दा न हों। बारे जब तुमको लिखा और तुमने ब-आईन-ए-मुनासिब उनको इत्तिला दी, तो उन्होंने मु्‍झको ख़त लिखा।

चुनांचे परसों मैंने उसे ख़त का जवाब भेज दिया। तुम्हारी इनायत से वह जो एक अंदेशा था, रफ़अ हो गया। ख़ातिर मेरी जमा हो गई। अब कौन-सा किस्सा बाक़ी रहा कि जिसके वास्ते आप उनकी सिफ़ारिश करते हैं। वल्लाह, तफ़्ता को मैं अपने फ़र्जन्द की जगह समझता हूँ। और मुझको नाज़ है कि ख़ुदा ने मुझको ऐसा क़ाबिल फ़र्जन्द अ़ता किया है। रहा दीबाचा, तुमको मेरी ख़बर ही नहीं।

मैं अपनी जान से मरता हूँ -

गया हो अपना जेवड़ा ही निकल
कहाँ की रुबाई, कहाँ की ग़ज़ल

यक़ीन है कि वह और आप मेरा उज्र क़बूल करें। और मुझको मुआ़फ़ रखें। ख़ुदा ने मुझ पर रोज़ा नमाज़ मुआ़फ़ कर दिया है। क्या तुम और तफ़्ता एक दीबाचा मुआ़फ़ न करोगे?...

2 जून 1825 ई. असदुल्ला

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