ग़ालिब का ख़त-25

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Aziz AnsariWD
भाई साहब को सलाम और मुंशी अब्दुल लतीफ़ और नसीरुद्दीन और प्यारी ज़किया को दुआ़ पहुँचे। हज़रत अ़र्क पिए जाइए और घबराइए नहीं। देखना, क्या फायदा करता है। मुझको तो मुफ़ीद पड़ा। यक़ीन है कि तुमको भी नफ़ा करेगा।

बंदा परवर! पाखल का मुरब्बा और अचार, दोनों मौजूद हैं। खुदा हुज़ूर को सलामत रखे। जब चाहूँ, माँग लाऊँ, मगर भेजूँ क्योंकर? हाँ डाक, उसका यह हाल है कि मर्तबान, कमाल यह है कि टीन में रखकर भेजिए, यह उल्टा-सीधा लाकलाम होगा। अगर मुरब्बा है तो शीरा और अचार है, तो तेल गिर जाएगा। बहरहाल, अचार पाखल का कि वह ब-निस्बत मुरब्बा के ज़्यादातर सूदमंद है, ले आया हूँ और मेरे पास रखा है। जिस तरह हुक्म करो, उस तरह भेज दूँ।

हज़रत काले साहिब और मियाँ निज़ामुद्दीन और भाई गुलाम हुसैन ख़ाँ और तुराबाज़ ख़ाँ और मुग़ल खाँ और सब साहिब सलाम कहते हैं। ज़ैनउलआबदीन ख़ाँ अच्छा है। बीवी भी उसकी फुर्सत पाती चली है। मर्ज़ की सूरत ख़तरनाक नहीं रही। खुदा चाहे तो सेहत हो जाए।

भाई, खुदा के वास्ते हसन अ़ली बेग को समझा दो कि यह क्या तौर है कि एक लौंडे के वास्ते, बीवी को छोड़ दिया है। वालिदा भी तुम्हारी उसकी बात नहीं पूछतीं। वह ग़रीब अपनी ख़ाला के यहाँ पड़ी हुई है। अपनी माँ को लिखो कि बहू को मनाकर ले आवें और तुम्हारे पास रवाना करें। यानी यह सलाह तुम मिर्जा़ को समझाओ और बहुत-सा कहो। फ़क़त।
सन् 1851

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