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ग़ालिब का ख़त- 29

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Aziz AnsariWD
भाई साहिब मैं भी तुम्हारा हमदर्द हो गया, यानी मंगल के दिन 18 रबीअ़ उल अव्वल को शाम के वक़्त वह फूफी की मैंने बचपने से आज तक उसको माँ समझा था और वह भी मुझको बेटा समझती थी, मर गई। आपको मालूम रहे कि परसों मेरे गोया नौ आदमी मरे-तीन फूफियाँ और तीन चच्चा और एक बाप और एक दादी और एक दादा, यानी उस मरहूमा के होने से मैं जानता था कि ये नौ आदमी ज़िदा हैं। और उसके मरने से मैंने जाना कि ये नौ आदमी आज यक मार मर गए।...

22 दिसंबर 1853 असदुल्ला

भाई साहिब,
आपके इनायतनामा से भाभी साहिबा के मिज़ाज की नासाज़ी और बच्चों की नाख़ुशी मालूम हुई। परवरदिगार सबको अपनी अमान में रखे। दिन बुरे हैं। यहाँ भी तप का मर्ज़ आ़म है? मगर अंजाब बख़ैर है। ये सब ख़ूबियाँ मेंह न बरसने की हैं। ख़ुदा से दुआ़ माँगता हूँ और आपसे चाहता हूँ कि अब जल्द आप सबकी ख़ैर-ओ-आ़फियत लिखें।

मिर्जा़ यूसुफ़ अ़ली ख़ाँ, अगर अभी वहाँ से न चले हों, तो उनको मेरी दुआ़ कहना, और यह कहना कि मियाँ तुम्हारा ख़त आया। तुम्हारे सब दोस्तों को सलाम कह दिया। वह सब सलाम कहते हैं। अब तुम मुंशी साहिब पर सब अमूर हवाला करकर चले आओ। दिरंग न करो।

ग़ज़ल देखी। भाई साहिब, इन ज़मीनों में मज़ामीन आ़शिक़ाना की गुंजाइश कहाँ? मुआफ़िक इस ज़मीन के अशआ़र मरबूत हैं। मुंशी अब्दुल लतीफ़ और उनके फ़र्जन्द बेगम और उसकी हमजोलियों को दुआ़।

10 अगस्त 1854 ई. असदुल्ल ा

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