तुम्हारे बिना आरती का दीया य ह न बुझ पा रहा है न जल पा रहा है ।
भटकती निशा कह रही है कि तम मे ं दिए से किरन फूटना ही उचित ह ै, शलभ चीखता पर बिना प्यार के त ो विधुर सांस का टूटना ही उचित ह ै, इसी द्वंद्व में रात का यह मुसाफिर न रुक पा रहा ह ै, न चल पा रहा है ।
तुम्हारे बिना आरती का दिया य ह न बुझ पा रहा ह ै, न जल पा रहा है।
मिलन ने कहा था कभी मुस्करा क र हँसो फूल बन विश्व-भर को हँसा ओ, मगर कह रहा है विरह अब सिसक क र झरा रात-दिन अश्रु के शव उठा ओ, इसी से नयन का विकल जल-कुसुम यह न झर पा रहा ह ै, न खिल पा रहा है ।
तुम्हारे बिना आरती का दिया य ह न बुझ पा रहा ह ै, न जल पा रहा है ।
कहाँ दीप है जो किसी उर्वशी क ी किरन-उंगलियों को छुए बिना जला ह ो? बिना प्यार पाए किसी मोहिनी क ा कहाँ है पथिक जो निशा में चला हो! अचंभा अरे कौन फिर जो तिमिर यह न गल पा रहा ह ै, न ढल पा रहा है।
तुम्हारे बिना आरती का दिया य ह न बुझ पा रहा ह ै, न जल पा रहा है ।
किसे है पता धूल के इस नगर में कहाँ मृत्यु वरमाल लेकर खड़ी ह ै? किसे ज्ञात है प्राण की लौ छिपा ए चिता में छुपी कौन-सी फुलझड़ी ह ै? इसी से यहाँ राज हर जिंदगी का न छुप पा रहा ह ै, न खुल पा रहा है।
तुम्हारे बिना आरती का दिया य ह न बुझ पा रहा ह ै, न जल पा रहा है।