एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के !

Webdunia
- नीर ज

ND
एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !

बाँसुरी से बिछुड़ जो गया स्वर उस े
भर लिया कंठ में शून्य आकाश न े,
डाल विधवा हुई जोकि पतझर मे ं
माँग उसकी भरी मुग्ध मधुमास न े,

हो गया कूल नाराज जिस नाव स े
पा गई प्यार वह एक मझधार क ा
बुझ गया जो दीया भोर में दीन-स ा
बन गया रात सम्राट अंधियार क ा,

जो सुबह रंक थ ा, शाम राजा हु आ
जो लुटा आज कल फिर बसा भी वह ी,
एक मैं ही कि जिसके चरण से धर ा
रोज तिल-तिल धसकती रही उम्र-भर !

एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !
साँस मेरी सिसकती रही उम्र भर !
प्यार इतना किया जिंदगी में कि जड़-
मौन तक मरघटों का मुखर कर दिय ा,
रूप-सौंदर्य इतना लुटाया कि ह र
भिक्षु के हाथ पर चंद्रमा धर दिय ा,

भक्ति-अनुरक्ति ऐसी मिल ी, सृष्टि की-
शक्ल हर एक मेरी तरह हो ग ई,
जिस जगह आँख मूँदी निशा आ ग ई,
जिस जगह आँख खोली सुबह हो ग ई,

किंतु इस राग-अनुराग की राह प र
वह न जाने रतन कौन-सा खो गय ा?
खोजती-सी जिसे दूर मुझसे स्वय ं
आयु मेरी खिसकती रही उम्र-भर- !

एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !

वेश भाए न जाने तुझे कौन-स ा?
इसलिए रोज कपड़े बदलता रह ा,
किस जगह कब कहाँ हाथ तू थाम ल े
इसलिए रोज गिरता संभलता रह ा,

कौन-सी मोह ले तान तेरा हृद य
इसलिए गीत गाया सभी राग क ा,
छेड़ दी रागिनी आँसुओ की कभ ी
शंख फूँका कभी क्राँति का आग क ा,

किस तरह खेल क्या खेलता तू मिल े
खेल खेले इसी से सभी विश्व क े
कब न जाने करे याद तू इसलिए
याद कोई ‍कसकती रही उम्र-भर !

एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर!

रोज ही रात आई ग ई, रोज ह ी
आँख झपकी मगर नींद आई नही ं
रोज ही हर सुब ह, रोज ही हर कल ी
खिल गई तो मगर मुस्कुराई नही ं,

नित्य ही रास ब्रज में रचा चाँद ने
पर न बाजी बाँसुरिया कभी श्याम की
इस तरह उर अयोध्या बसाई ग ई
याद भूली न लेकिन किसी राम क ी

हर जगह जिंदगी में लगी कुछ कम ी
हर हँसी आँसुओं में नहाई मिल ी
हर सम य, हर घड़ ी, भूमि से स्वर्ग त क
आग कोई दहकती रही उम्र-भर !

एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !
सांस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !!

खोजता ही फिरा पर अभी तक मुझे
मिल सका कुछ न तेरा ठिकाना कही ं,
ज्ञान से बात की तो कहा बुद्धि ने -
' सत्य है वह मगर आजमाना नही ं',

धमर् के पास पहुँचा पता यह चल ा
मंदिरों-मस्जिदों में अभी बंद ह ै,
जोगियों ने जताया है कि जप-योग ह ै,
भोगियों से सुना भोग-आनंद ह ै

किंतु पूछा गया नाम जब प्रेम से
धूल से वह लिपट फूटकर रो पड़ ा,
बस तभी से व्यथा देख संसार क ी
आँख मेरी छलकती रही उम्र-भर !

एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !!

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