कारँवा गुज़र गया

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- नीर ज
ND

स्वप्न झरे फूल स े,
मीत चुभे शूल स े,
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल स े,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे ।
कारवाँ गुज़र गय ा, गुबार देखते रहे !

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढ़ल ग ई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल ग ई,
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल ग ई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल ग ई,
गीत अश्क बन ग ए,
छंद हो दफन ग ए,
साथ के सभी दिए धुआँ-धुआँ पहन ग ए,
और हम झुके-झुक े,
मोड़ पर रुके-रुक े
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे ।
कारवाँ गुज़र गय ा, गुबार देखते रहे ।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठ ा,
क्या सुरूप था कि देख आईना सिहर उठ ा,
इस तरफ ज़मीं उठी तो आसमान उधर उठ ा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठ ा,
एक दिन मगर यहा ँ,
ऐसी कुछ हवा चल ी,
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गल ी,
और हम लुटे-लुट े
वक्त से पिटे-पिट े
साँस की शराब का खुमार देखते रहे ।
कारवाँ गुज़र गय ा, गुबार देखते रहे ।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दू ँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दू ँ,
दर्द था दिया गया कि हर दु:खी को प्यार दू ँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दू ँ,
हो सका न कुछ मग र,
शाम बन गई सह र,
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिख र,
और हम डरे-डर े,
नीर नयन में भर े,
ओढ़कर कफ़ न, पड़े मज़ार देखते रहे ।
कारवाँ गुज़र गय ा, गुबार देखते रहे ।

माँग भर चली कि ए क, जब नई-नई किर न,
ढोलकें धुमुक उठी ं, ठुमक उठे चरन-चर न,
शोर मच गया कि लो चली दुल्ह न, चली दुल्ह न,
गाँव सब उमड़ पड़ ा, बहक उठे नयन-नय न,
पर तभी ज़हर भर ी,
गाज एक वह गिर ी,
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनर ी,
और हम अजान स े,
दूर के मकान स े,
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे ।
कारवाँ गुज़र गय ा, गुबार देखते रहे।

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