क्या कह ा? - ' सत्य बस ब्रह्म और मिथ्या ह ै, यह सृष्टि चराचर केवल छाया ह ै, भ्रम ह ै? है सपने-सा निस्सार सकल मानव-जीव न? यह ना म, रूप-सौंदर्य अविद्या ह ै, तम ह ै?
मैं कैसे कह दूँ धूल मगर इस धरती क ो जो अब तक रोज मुझे यह गोद खिलाती ह ै, मैं कैसे कह दूँ मिथ्या है संपूर्ण सृष्ट ि हर एक कली जब मुझे देख शरमाती ह ै?
जीवन को केवल सपना मैं कैसे समझू ँ जब नित्य सुबह आ सूरज मुझे जगाता ह ै, कैसे मानूँ निर्माण हमारा व्यर्थ विफ ल जब रोज हिमालय ऊँचा होता जाता है ।
वह बात तुम्हीं सोचो, समझो, परखो, जान ो मुझको भी इस मिट्टी का कण-कण प्यारा ह ै, है प्यार मुझे जग स े, जीवन के क्षण-क्षण स े तृण-तृण पर मैंने अपना नेह उतारा है!
मुस्काता है जब चाँद निशा की बाँहों मे ं सच मानो तब मुझ पर खुमार छा जाता ह ै, बाँसुरी बजाता है कोयल की जब मधुब न कोई साँवरिया मुझे याद आ जाता है!
निज धानी चूनर उड़ा-उड़ाकर नई फस ल जब दूर खेत से मुझको पास बुलाती ह ै, तब तेरे तन का रोम-रोम गा उठता ह ै औ' साँस-साँस मेरी कविता बन जाती है!
तितली के पंख लगा जब उड़ता है बसं त तरु-तरु पर बिखराता कुमकुम परिमल परा ग तब मुझे जान पड़ता कि धूल की दुल्हन का ' अक्ष र' से ज्यादा अक्षर है सारा सुहा ग
बुलबुल के मस्त तराने की स्वर-धारा में जब मेरे मन का सूनापन खो जाता ह ै, संगीत दिखाई देता है साकार मुझ े तब तानसेन मेरा जीवित हो आता है ।
जब किसी गगनचुंबी गिरि की चोटी पर चढ ़ थक कर फिर-फिर आती है मेरी विफल दृष्ट ि तब वायु कान में चुपसे कह जाती ह ै, ' रै किसी कल्पना से है छोटी नहीं दृष्ट ि'
कलकल ध्वनि करती पास गुजरती जब नदिया ँ है स्वयं छनक उठती तब प्राणों की पाय ल, फैलाता है जब सागर मिलनातुर बाँहे ं तब लगता सच एकाँत नही ं, सच है हलचल ।
अंधियारी निशि में बैठ किसी तरु के ऊप र जब करता है पपीहा अपने 'प ी' का प्रका श तब सच मानो मालूम यही होता मुझक ो गा रहे विरह का गीत हमारे सूरदास !
जब भाँति-भाँति के पंख-पखेरू बड़े सुब ह निज गायन से करते मुखरित उपवन-कान न सम्मुख बैठे तब दिखलाई देते हैं मुझक ो तुलसी गाते निज विनय-पत्रिका रामायण ।
पतझर एक ही झोंक-झकोरे में आक र जब नष्ट-भ्रष्ट कर देता बगिया का सिंगा र तब तिनका मुझसे कहता है बस इसी तर ह प्राचीन बनेगा नव संस्कृति के लिए द्वार ।
जब बैठे किसी झुरमुट में दो भोले-भाले । प्रेमी खोलते हृदय निज लेकर प्रेम ना म तब लता-जाल से मुझे निकलते दिखलाई- देते हैं अपने राम-जानकी पूर्णकाम ।
अपनी तुतली आँखों से चंचल शिशु कोई जब पढ़ लेता है मेरी आत्मा के अक्ष र तब मुझको लगता स्वर्ग यहीं है आसपा स सौ बार मुक्ति से बढ़कर है बंधन नश्व र
मिल जाता है जब कभी लगा सम्मुख पथ प र भूखे-भिखमंगे नंगों का सूना बाजा र, तब मुझे जान पड़ता कि तुम्हारा ब्रह्म स्वय ं है खोज रहा धरती पर मिट्टी की मजार ।
यह सब असत्य है तो फिर बोलो सच क्या है- वह ब्रह्म कि जिसको कभी नहीं तुमने जान ा? जो काम न आया कभी तुम्हारे जीवन मे ं जो बुन न सका यह साँसों का ताना-बाना ।
भाई! यह दर्शन संत महंतों का है ब स तुम दुनिया वाले ह ो, दुनिया से प्यार कर ो, जो सत्य तुम्हारे सम्मुख भूखा नंगा ह ै उसके गाओ तुम गीत उसे स्वीकार करो !
यह बात कही जिसने उसको मालूम न थ ा वह समय आ रहा है कि मरेगा कब ईश्व र होगी मंदिर में मूर्ति प्रतिष्ठित मानव क ी औ' ज्ञान ब्रह्म को नही ं, मनुज को देगा स्वर।