जगत सत्यं ब्रह्म मिथ्‍या

Webdunia
- नीर ज

ND
क्या कह ा? - ' सत्य बस ब्रह्म और मिथ्‍या ह ै,
यह सृष्‍टि चराचर केवल छाया ह ै, भ्रम ह ै?
है सपने-सा निस्सार सकल मानव-जीव न?
यह ना म, रूप-सौंदर्य अविद्या ह ै, तम ह ै?

मैं कैसे कह दूँ धूल मगर इस धरती क ो
जो अब तक रोज मुझे यह गोद खिलाती ह ै,
मैं कैसे कह दूँ मिथ्‍या है संपूर्ण सृष्ट ि
हर एक कली जब मुझे देख शरमाती ह ै?

जीवन को केवल सपना मैं कैसे समझू ँ
जब नित्य सुबह आ सूरज मुझे जगाता ह ै,
कैसे मानूँ निर्माण हमारा व्यर्थ विफ ल
जब रोज हिमालय ऊँचा होता जाता है ।

वह बात तुम्हीं सोचो, समझो, परखो, जान ो
मुझको भी इस मिट्‍टी का कण-कण प्यारा ह ै,
है प्यार मुझे जग स े, जीवन के क्षण-क्षण स े
तृण-तृण पर मैंने अपना नेह उतारा है!

मुस्काता है जब चाँद निशा की बाँहों मे ं
सच मानो तब मुझ पर खुमार छा जाता ह ै,
बाँसुरी बजाता है कोयल की जब मधुब न
कोई साँवरिया मुझे याद आ जाता है!

निज धानी चूनर उड़ा-उड़ाकर नई फस ल
जब दूर खेत से मुझको पास बुलाती ह ै,
तब तेरे तन का रोम-रोम गा उठता ह ै
औ' साँस-साँस मेरी कविता बन जाती है!

तितली के पंख लगा जब उड़ता है बसं त
तरु-तरु पर बिखराता कुमकुम परिमल परा ग
तब मुझे जान पड़ता कि धूल की दुल्हन का
' अक्ष र' से ज्यादा अक्षर है सारा सुहा ग

बुलबुल के मस्त तराने की स्वर-धारा में
जब मेरे मन का सूनापन खो जाता ह ै,
संगीत दिखाई देता है साकार मुझ े
तब तानसेन मेरा जीवित हो आता है ।

जब किसी गगनचुंबी गिरि की चोटी पर चढ ़
थक कर फिर-फिर आती है मेरी विफल दृष्ट ि
तब वायु कान में चुपसे कह जाती ह ै,
' रै किसी कल्पना से है छोटी नहीं दृष्ट ि'

कलकल ध्वनि करती पास गुजरती जब नदिया ँ
है स्वयं छनक उठती तब प्राणों की पाय ल,
फैलाता है जब सागर मिलनातुर बाँहे ं
तब लगता सच एकाँत नही ं, सच है हलचल ।

अंधियारी निशि में बैठ किसी तरु के ऊप र
जब करता है पपीहा अपने 'प ी' का प्रका श
तब सच मानो मालूम यही होता मुझक ो
गा रहे विरह का गीत हमारे सूरदास !

जब भाँति-भाँति के पंख-पखेरू बड़े सुब ह
निज गायन से करते मुखरित उपवन-कान न
सम्मुख बैठे तब दिखलाई देते हैं मुझक ो
तुलसी गाते निज विनय-पत्रिका रामायण ।

पतझर एक ही झोंक-झकोरे में आक र
जब नष्ट-भ्रष्ट कर देता बगिया का सिंगा र
तब तिनका मुझसे कहता है बस इसी तर ह
प्राचीन बनेगा नव संस्कृति के लिए द्वार ।

जब बैठे किसी झुरमुट में दो भोले-भाले ।
प्रेमी खोलते हृदय निज लेकर प्रेम ना म
तब लता-जाल से मुझे निकलते दिखलाई-
देते हैं अपने राम-जानकी पूर्णकाम ।

अपनी तुतली आँखों से चंचल शिशु कोई
जब पढ़ लेता है मेरी आत्मा के अक्ष र
तब मुझको लगता स्वर्ग यहीं है आसपा स
सौ बार मुक्ति से बढ़कर है बंधन नश्व र

मिल जाता है जब कभी लगा सम्मुख पथ प र
भूखे-भिखमंगे नंगों का सूना बाजा र,
तब मुझे जान पड़ता कि तुम्हारा ब्रह्म स्वय ं
है खोज रहा धरती पर मिट्‍टी की मजार ।

यह सब असत्य है तो फिर बोलो सच क्या है-
वह ब्रह्म कि जिसको कभी नहीं तुमने जान ा?
जो काम न आया कभी तुम्हारे जीवन मे ं
जो बुन न सका यह साँसों का ताना-बाना ।

भाई! यह दर्शन संत महंतों का है ब स
तुम दुनिया वाले ह ो, दुनिया से प्यार कर ो,
जो सत्य तुम्हारे सम्मुख भूखा नंगा ह ै
उसके गाओ तुम गीत उसे स्वीकार करो !

यह बात कही जिसने उसको मालूम न थ ा
वह समय आ रहा है कि मरेगा कब ईश्व र
होगी मंदिर में मूर्ति प्रतिष्ठित मानव क ी
औ' ज्ञान ब्रह्म को नही ं, मनुज को देगा स्वर।

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