तुम्हारे बिना आरती का दीया यह

Webdunia
- नीर ज

ND
तुम्हारे बिना आरती का दीया य ह
न बुझ पा रहा है न जल पा रहा है ।

भटकती निशा कह रही है कि तम मे ं
दिए से किरन फूटना ही उचित ह ै,
शलभ चीखता पर बिना प्यार के त ो
विधुर सांस का टूटना ही उचित ह ै,
इसी द्वंद्व में रात का यह मुसाफिर
न रुक पा रहा ह ै, न चल पा रहा है ।

तुम्हारे बिना आरती का दिया य ह
न बुझ पा रहा ह ै, न जल पा रहा है।

मिलन ने कहा था कभी मुस्करा क र
हँसो फूल बन विश्व-भर को हँसा ओ,
मगर कह रहा है विरह अब सिसक क र
झरा रात-दिन अश्रु के शव उठा ओ,
इसी से नयन का विकल जल-कुसुम यह
न झर पा रहा ह ै, न खिल पा रहा है ।

तुम्हारे बिना आरती का दिया य ह
न बुझ पा रहा ह ै, न जल पा रहा है ।

कहाँ दीप है जो किसी उर्वशी क ी
किरन-उंगलियों को छुए बिना जला ह ो?
बिना प्यार पाए किसी मोहिनी क ा
कहाँ है पथिक जो निशा में चला हो!
अचंभा अरे कौन फिर जो तिमिर यह
न गल पा रहा ह ै, न ढल पा रहा है।

तुम्हारे बिना आरती का दिया य ह
न बुझ पा रहा ह ै, न जल पा रहा है ।

किसे है पता धूल के इस नगर में
कहाँ मृत्यु वरमाल लेकर खड़ी ह ै?
किसे ज्ञात है प्राण की लौ छिपा ए
चिता में छुपी कौन-सी फुलझड़ी ह ै?
इसी से यहाँ राज हर जिंदगी का
न छुप पा रहा ह ै, न खुल पा रहा है।

तुम्हारे बिना आरती का दिया य ह
न बुझ पा रहा ह ै, न जल पा रहा है।

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