जी उठे शायद शलभ इस आस मे ं रात भर रो र ो, दीया जलता रहा ।
थक गया जब प्रार्थना का पुण् य, ब ल, सो गई जब साधना होकर विफ ल, जब धरा ने भी नहीं धीरज दिय ा, व्यंग जब आकाश ने हँसकर किय ा, आग तब पानी बनाने के लिए- रात भर रो र ो, दीया जलता रहा ।
जी उठे शायद शलभ इस आस मे ं रात भर रो र ो, दीया जलता रहा ।
बिजलियों का चीर पहने थी दिश ा, आँधियों के पर लगाए थी निश ा, पर्वतों की बाँह पकड़े था पव न, सिन्धु को सिर पर उठाए था गग न, सब रुक े, पर प्रीति की अर्थी लि ए, आँसुओं का कारवाँ चलता रहा ।
जी उठे शायद शलभ इस आस मे ं रात भर रो र ो, दिया जलता रहा ।
काँपता त म, थरथराती लौ रह ी, आग अपनी भी न जाती थी सह ी, लग रहा था कल्प-सा हर एक प ल बन गई थीं सिसकियाँ साँसे विक ल, पर न जाने क्यों उमर की डोर मे ं प्राण बँध तिल-तिल सदा गलता रहा ?
जी उठे शायद शलभ इस आस मे ं रात भर रो-र ो, दीया जलता रहा ।
सो मरण की नींद निशि फिर-फिर जग ी, शूल के शव पर कली फिर फिर उग ी, फूल मधुपों से बिछुड़कर भी खिल ा, पंथ पंथी से भटककर भी चल ा पर बिछुड़ कर एक क्षण को जन्म स े आयु का यौवन सदा ढलता रहा ।
जी उठे शायद शलभ इस आस मे ं रात भर रो र ो, दीया जलता रहा ।
धूल का आधार हर उपवन लि ए, मृत्यु से श्रृंगार हर जीवन कि ए, जो अमर है वह न धरती पर रह ा, मर्त्य का ही भार मिट्टी ने सह ा, प्रेम को अमरत्व देने को मग र, आदमी खुद को सदा छलता रहा ।
जी उठे शायद शलभ इस आस मे ं रात भर रो र ो, दीया जलता रहा।