प्राण ! पहले तो हृदय तुमने चुराय ा छीन ली अब नींद भी मेरे नयन क ी
बीत जाती रात हो जाता सबेर ा, पर नयन-पक्षी नहीं लेते बसेर ा, बन्द पंखों में किए आकाश-धरत ी खोजते फिरते अँधेरे का उजेर ा, पंख थकत े, प्राण थकत े, रात थकत ी खोजने की चाह पर थकती न मन की ।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की ।
स्वप्न सोते स्वर्ग तक अंचल पसार े, डाल कर गल-बाँह भ ू, नभ के किनार े किस तरह सोऊँ मगर मैं पास आक र बैठ जाते हैं उतर नभ से सितार े, और हैं मुझको सुनाते वह कहान ी, है लगा देती झड़ी जो अश्रु-घन की ।
सिर्फ क्षण भर तुम बने मेहमान घर मे ं, पर सदा को बस गए बन याद उर मे ं, रूप का जादू किया वह डाल मुझ प र आज मैं अनजान अपने ही नगर मे ं, किन्तु फिर भी मन तुम्हें ही प्यार करत ा क्या करूँ आदत पड़ी है बालपन की ।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की ।
पर न अब मुझको रुलाओ और ज़्याद ा, पर न अब मुझको मिटाओ और ज़्याद ा, हूँ बहुत मैं सह चुका उपहास जग क ा अब न मुझ पर मुस्कराओ और ज़्याद ा, धैर्य का भी तो कहीं पर अन्त है प्रिय ! और सीमा भी कहीं पर है सहन की।