बड़ी-बड़ी खुशियां हैं छोटी-छोटी बातों में...

Webdunia
- अजय पुराणिक
 
रोज कार्यालय जाते समय उन्हें पब्लिक स्कूल के अहाते के बाहर खड़े देखता। उम्र यही पैंसठ-सत्तर की होगी। शायद स्कूल में किसी को छोड़ने या लेने आते होंगे। एक दिन उत्सुकतावश पूछ ही लिया- आप रोजाना यहाँ खड़े रहते हैं? उनके उत्तर से आश्चर्य हुआ, न तो उनका कोई नाती-पोता स्कूल में पढ़ता था न वे किसी को लिवाने या छोड़ने आते थे, बल्कि स्कूल के बच्चों को बीच की छुट्टी में खेलते-कूदते, लड़ते-झगड़ते एवं किलकारियाँ करते देख उन्हें आनंद होता था। 

रास्ते के किनारे, एक छोटे से पोखर के पास कई बार बच्चों को (सभी वर्ग के बच्चे अमीर, गरीब, मध्यम आदि) खड़े देखा। किनारे पर कुछ पक्षियों का बसेरा है। बच्चे पानी में पत्थर फेंकते, छपाक की आवाज आती एवं असंख्य पक्षी आकाश में उड़ते और बच्चे आनंद से सराबोर, खिलखिलाकर जोरों से हँसते। इस तरह की छोटी-छोटी घटनाएँ किसी के जीवन में आनंद का सृजन कर सकती हैं, पढ़कर या सुनकर विश्वास नहीं होगा। 
 
विशेषतः आज के इस उथल-पुथल भरे युग में जब आनंद की सारी अवधारणाएँ सफलता, संपन्नता, समृद्धता, साधनों की प्रचुरता एवं अन्य भौतिक उपलब्धियों तक सीमित है, जबकि वास्तविकता यह है कि भौतिक सुखों के इस मायाजाल में हमने आनंद को कब का तिरोहित कर दिया है। आनंद क्या है? क्या आनंद क्या है? क्या आनंद को परिभाषित दुःख नहीं होने की दशा सुख है, लेकिन सुखी होने का अर्थ आनंदित होना नहीं है। आनंद तो सुख की दशा में होने वाला वह अतिरिक्त भाव है, जो चित्त को प्रसन्न एवं तरोताजा कर परमात्मा से एकाकार होने को प्रवृत्त करता है। 
 
जैसे किसी कंपनी में वर्षांत पर नियमित वेतन के अतिरिक्त बोनस दिया जाता है, उसी तरह आनंद सुख की दशा में प्राप्त होने वाला बोनस है। आनंद को प्राप्त कर व्यक्ति अपने मूल स्वरूप से तादात्म्य स्थापित करता है। इसीलिए आनंद के क्षणों में व्यक्ति के मन में विकार नहीं आते। आनंद से भी ऊपर की अवस्था है परमानंद की, जिसको प्राप्त होना ईश्वर से साक्षात्कार के समरूप है। अतः आनंद को ईश्वर प्राप्ति की पहली सीढ़ी कहा जाए तो अनुपयुक्त नहीं होगा। 


 
बुद्ध के सबसे करीबी शिष्य का नाम आनंद था। अब लगता है कि आनंद नाम के शिष्य की कल्पना रचनाकारों ने प्रतीक स्वरूप की होगी। क्योंकि बुद्ध जिस परमानंद की अवस्था को प्राप्त कर चुके थे वहाँ आनंद का भाव उनके शिष्यत्व का दर्जा प्राप्त करे, यह युक्तिसंगत प्रतीत होता है। आज मौज-मस्ती, धूम-धड़ाका और शोर-शराबे में जो आनंद हम खोज रहे हैं, उसने हमें कृत्रिम साधनों के जंजाल में जकड़कर रख दिया है एवं प्रभु के पास जाना तो छोड़िए हम उससे दूर होते जा रहे हैं, क्योंकि यह सब हमें अपने अंतर से भटका रहा है। 
 
आनंद हमें अंतर से साक्षात्कार कराता है। दरअसल हमने अपने आसपास ऐशो-आराम का हर साधन मुहैया कर रखा है, जो हमें आनंद का आभास निर्माण करता है, लेकिन उसकी परिणति ग्लानि, पश्चाताप और विषाद यहाँ तक कि अवसान (डिप्रेशन) में होती है। 
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