प्रमुखतया चुम्बक चिकित्सा की दो पद्धतियाँ प्रचलित हैं- 1. सार्वदैहिक अर्थात हथेलियों व तलवों पर लगाने से तथा 2. स्थानिक अर्थात् रोगग्रस्त भाग पर लगाने से। इनका वर्णन यहाँ दिया जा रहा है -
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1. सार्वदैहिक प्रयोग
इस प्रयोग विधि के अनुसार उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी ध्रव से सम्पन्न चुम्बकों का एक जोड़ा लिया जाता है। शरीर के विद्युतीय सहसंबंध के आधार पर सामान्यतया उत्तरी ध्रुव वाले चुम्बक का प्रयोग शरीर के दाएँ भागों पर, आगे की ओर व उत्तरी भागों पर किया जाता है, जबकि दक्षिणी ध्रुव वाले चुम्बक का प्रयोग शरीर के बाएँ भागों पर, पीठ पर तथा निचले भागों पर किया जाता है।
यह अटल नियम चुम्बकों के सार्वदैहिक प्रयोग पर ही लागू होता है, जबकि स्थानिक प्रयोग की अवस्था में रोग संक्रमण, दर्द, सूजन आदि पर अधिक ध्यान दिया जाता है। उत्तम परिणाम हासिल करने के लिए जब रोग अथवा उसका प्रसार शरीर के ऊपरी भाग अर्थात् नाभि से ऊपर हो तो चुम्बकों को हथेलियों पर लगाया जाता है, जबकि शरीर के निचले भागों अर्थात् नाभि से नीचे विद्यमान रोगों में चुम्बकों को तलवों में लगाया जाता है।
2. स्थानिक प्रयोग
इस प्रयोग विधि में चुम्बकों को उन स्थानों पर लगाया जाता है, जो रोगग्रस्त होते हैं, जैसे- घुटना और पैर, दर्दनाक कशेरुका, आँख, नाक आदि। इनमें रोग की तीव्रता तथा रूप के अनुसार एक, दो और यहाँ तक कि तीन चुम्बकों का प्रयोग भी किया जा सकता है।
उदाहरणार्थ- घुटने तथा गर्दन के तेज दर्द में दो चुम्बकों को अलग-अलग घुटनों पर तथा तीसरे चुम्बक को गर्दन की दर्दनाक कशेरुका पर लगाया जा सकता है। इस प्रयोग विधि की उपयोगिता स्थानिक रोग संक्रमण की अवस्था में भी होती है। अँगूठे में तेज दर्द होने जैसी कुछ अवस्थाओं में कभी-कभी दोनों चुम्बकों के ध्रुवों के बीच अँगूठा रखने से तुरंत आराम मिलता है।