कट्टरता जीतेगी या उदारता

राजकमल प्रकाशन

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पुस्तक के बारे में
यह पुस्तक भारतीय राजनीति और समाज को पिछले दो दशकों से मथने वाली सांप्रदायिकता की परिघटना को समझने और उसके मुकाबले की प्रेरणा तथा सम्यक समझ विकसित करने के उद्देश्य से लिखी गई है। चार खंडों- वाजपेयी, संघ संप्रदाय, जॉर्ज फर्नांडिस, गुजरात-में विभक्त इस पुस्तक में सांप्रदायिकता के चलते पैदा होने वाली कट्टरता, संकीर्णता और फासीवादी प्रवृत्तियों एवं उन्हें अंजाम देने में भूमिका निभाने वाले नेताओं, संगठनों, शक्तियों आदि का घटनात्मक विवरण सहित विश्लेषण किया गया है।

पुस्तक के चुनिंदा अंश
वाजपेयी ने अमेरिका में बसे भारतीयों और वहाँ आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में विहिप के नेतृत्व में शामिल होने गए साधु-संतों के सामने अपने स्वयंसेवक होने की गौरव-गाथा कही। उन्होंने अपने स्वयं सेवक यानी राष्ट्रीय स्वयं सेवक होने के गौरव को प्रधानमंत्री होने के गौरव से ज्यादा बड़ा बताया। पहला विवाद उन के असी बयान को लेकर हुआ।
( स्वयं सेवक की सच्चाई से)
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ऐसी स्थिति कम से कम आनी चाहिए कि किसी नेता को अपने वक्तव्य पर अतिरिक्त स्पष्टीकरण देना पड़े। अगर देश के शीर्षस्थ नेता बार-बार अपने बयानों पर सफाई देते हैं तो समझ लेना चाहिए कि उनमें संवैधानिक मूल्यों-मान्यताओं और देश की जनता के प्रति'बेसिक' ईमानदारी का अभाव है। भारतीय राजनीति में सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता भाषा की कुछ ना कुछ बाजीगरी करके जनता को छकाते हैं।
( अब की बारी देश तोड़ने की तैयारी से)
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कोई आश्चर्य नहीं कि इस पूरे परिदृश्य में आम आदमी की धार्मिकता भी संघ की छद्म धार्मिकता से प्रभावित हुई है। आज वह भी धर्म के नाम पर संघ संप्रदाय का मुँह जोहने लगा है। महाप्रभु चैतन्य की गौड़ीय वैष्णव धारा में विधिवत दीक्षित एक मित्र ने मुझे यह कहकर सकते में डाल दिया था कि 'स्टेंस था तो बदमाश, ‍फिर भी उसको मारने का तरीका गलत था।' वैष्णव 'पराई पीर' जानने के लिए जाने जाते हैं। कुछ मार्क्सवादी विचारक तक वैष्णव धारा की मानवीय करूणा की प्रगतिशील भूमिका मानते हैं। लेकिन वैष्णवजनों में संघ संप्रदाय के प्रभाव स्वरूप करूणा की जगह क्रूरता का भाव प्रतिष्ठित होता है।
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समीक्षकीय टिप्पणी
यह पुस्तक मुख्यत: सांप्रदायिकता का जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, तथा अकादमिक आयामों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का आकलन करती है। सांप्रदायिकता की विचारधारा, भूमंडलीकरण की विचारधारा के साथ मिल कर देश की आर्थिक और राजनीतिक संप्रभुता पर गहरी चोट कर रही है। पुस्तक में दोनों के गठजोड़ का उदघाटन करते हुए नवसाम्राज्यवादी खतरे के प्रति आगाह किया गया है।

पुस्तक : कट्टरता जीतेगी या उदारता(राजनीतिक आलेख संग्रह)
लेखक: प्रेमसिंह
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 248
मूल्य : 250 रुपए

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