डेरा-बस्ती का सफरनामा

पुस्तक समीक्षा

Webdunia
निर्मला भुराड़िया
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आदिवासी जीवन पर 'कुर्राटी' उपन्यास लिखने वाले लेखक सतीश दुबे की कलम से इस बार बाँछड़ा महिलाओं के जीवन पर एक उपन्यास आया है। बाँछड़ा समुदाय में घर की जेठी कन्या प्रथा के नाम पर देह-व्यापार में धकेल दी जाती है। लेखक ने इस समुदाय की डेरा-बस्तियों में पहुँचकर इस समुदाय से जुड़ी परंपराओं, तथ्यों आदि का अध्ययन करके उसे उपन्यास रूप में ढाला है। उपन्यास रिपोर्ताज की शक्ल में है। अतः सीधी मुलाकात की तरह बाँछड़ा समाज के बाशिंदों से रूबरू करवाता है।

उपन्यास की पत्रकारी टोली शिराली सरीन, पवन पाल और यतीन्द्र योगी बाँछड़ा समुदाय पर स्टोरी करने के लिए नीमच के आसपास के उस क्षेत्र के लिए निकल पड़ते हैं, जहाँ बाँछड़ा समुदाय रहता है। पत्रकार शिराली द्वारा एक बाँछड़ा युवती से मुलाकात का दृश्य यूँ आता है-

' तुम्हारे लंबे बाल कितने सुंदर हैं? सँवारे नहीं अभी नहाई नहीं हो क्या?'

' कभी-कभी देर से सोना होता है तो देर से नींद खुलती है। हम खिलावड़ियों का नहाना-धोना, खाना-पीना कज्जाओं के आने से पहले पूरा हो जाता है।'

' कज्जा!! ये कज्जा क्या होता है?'

' ग्राहक को हम कज्जा कहते हैं...।'

इस तरह बातों ही बातों में और मिलने-जुलने के दौरान बाँछड़ा समुदाय की औरतों की अभिशप्त जिंदगी के बारे में कई बातें खुलती हैं, जैसे कि घर की पहली लड़की, जिसे देह-व्यापार में लिप्त किया जाता है, खिलावड़ी कहलाती है और जिसकी शादी करके गृहस्थिन बनाई जाती है वह भत्तावड़ी, मगर सौदा भत्तावड़ी का भी होता है। शादी तय करने से पहले लड़की का मोलभाव होता है। यहाँ लड़की वाला नहीं, लड़के वाला देता है।

लेखक ने उपन्यास में बाँछड़ा समुदाय और उनकी कुप्रथा के जन्म की अंतरकथा कही है, वहीं बाँछड़ाओं की जाति पंचायतों के दृश्य भी उपस्थित किए हैं, जो ये बताते हैं कि समुदाय के लोग कितने पिछले वाले जमाने में रह रहे हैं। जगह-जगह पर लोककथाओं, कविताओं आदि को भी कहानी में गूँथने का प्रयास किया गया है, वहीं कानून, पुलिस, सूचनाओं, अधिसूचनाओं का हवाला भी है, जो बताता है कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस तरह के पिछड़े हुए जीवन को सुधारने के लिए क्या प्रावधान हैं। इस वजह से कुछ जगहों पर उपन्यास थोड़ा निबंधात्मक भी हो जाता है।

कुल मिलाकर 'डेरा बस्ती का सफरनामा' बाँछड़ा समुदाय में प्रथा के रूप में प्रचलित देह-व्यापार के कारण-परिणामों पर निगाह डालता है। बाँछड़ा स्त्रियों की विवशता को चित्रित करता है। मुख्यधारा के लोगों के सामने इस सदी में ही चल रहे अभिशप्त, पिछड़े जीवन का ब्योरा लाना एक आवश्यक और सराहनीय कार्य है। श्री दुबे ने 'डेरा-बस्ती का सफरनामा' लिखकर यही कार्य किया है।


पुस्तक- डेरा-बस्ती का सफरनामा
लेखक- सतीश दुबे
प्रकाशक- दिशा प्रकाशन 138/16, त्रिनगर, दिल्ली 110035
मूल्य- रु. 200

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