पत्थर फेंक रहा हूँ : काव्य संग्रह

हमारे समय की जरूरी कविता

Webdunia
- उमा शंकर चौधरी
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वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले का नया कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूँ' उनके लंबे अनुभव और चिंतन से उपजी कविताओं का संकलन है। यहां चिंतन की ठोस जमीन तो है लेकिन वह विषय से इतना घुल-मिल गई है कि अंत में यहां एक मजबूत कविता की शक्ल में ही रह जाती है। देवताले अपनी कविताओं में निरंतर राजनीतिक सजगता और सामाजिक संदर्भों के अछूते विषय उठाते रहे हैं। बदले हुए समाज, बदले हुए समय में बदली हुई समस्याओं और विषयों पर अलग-अलग किस्म की कविताएँ उनके यहाँ हैं।

ठेठ गाँव से लेकर अपार्टमेंट और शहरी परिवेश की चमक-दमक तक उनकी निगाहों में है लेकिन देवताले के कवि मन को इस लंबे अंतराल ने कभी सकून नहीं लेने दिया। कभी ऐसी स्थिति नहीं बन पाई कि उन्हें लगे कि बस अब एक कवि को आराम करना चाहिए। देवताले के इस लंबे अंतराल का यह अनुभव है 'मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा/ कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा / और मैंने उन लोगों पर यकीन कभी नहीं किया/ जो घृणित युद्ध में शामिल हैं।' आग और गुस्से का साथ नहीं छोड़ना एक ऐसी विषम स्थिति की ओर इशारा है जिसमें चैन की नींद नहीं सोई जा सकती है। एक वरिष्ठ कवि की ये चंद पंक्तियाँ हमारे राजनीतिक-सामाजिक इतिहास को बयां करती हैं और यह भी कि इस बीच साहित्य की जगह चाहे जितनी भी सिकुड़ी हो लेकिन उसकी जरूरत बेतहाशा बढ़ी है।

देवताले जी के सामने चूँकि ये विषम परिस्थितियाँ रही हैं, उन्होंने कठिन समय को अपनी आँखों के सामने देखा है इसलिए उनका कवि मन हमेशा जागरूक रहा है। वे लिखते हैं 'मेरी यही कोशिश रही/ पत्थरों की तरह हवा में टकराएँ मेरे शब्द।' चूँकि समय भयावह है इसलिए शब्द मृदु नहीं होंगे बल्कि वे आपस में पत्थर की तरह टकराएँगे।

आज जब इस दुनिया की संस्कृति चापलूसी की संस्कृति और अंधानुकरण की संस्कृति है तब देवताले जैसे कवि ही यह लिख सकते हैं कि 'ऐसे जिंदा रहने से नफरत है मुझे/ जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे/ मैं हर किसी की तारीफ करके भटकता रहूँ/ मेरे दुश्मन न हों/ और इसे मैं अपने हक में बड़ी बात मानूँ।'

देवताले के यहाँ जूता पालिश करते एक लड़के से लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति तक जगह पाते हैं। देवताले 'दुनिया का सबसे गरीब आदमी' से लेकर 'बुद्ध के देश में बुश' तक पर कविताएँ लिखते हैं लेकिन सुखद यह है कि कविता के इस पूरे फैलाव में कहीं भी उनके गुस्से में कमी नहीं आती। वे अपने गुस्से को सर्जनात्मक बनाकर उससे भूख का निवारण चाहते हैं। 'अंधेरे की आग में कब से/ जल रही है भूख/ फिर भी नहीं उबल रहा/ गुस्से का समुद्र/ कब तक? कब तक?' उनकी कविता का शीर्षक है 'इस चमकदार जनतंत्र में सिर्फ जनता ही का नामोनिशान नहीं।' इस चमकदार जनतंत्र के सामने यह विवश जनता एक विरोधाभास पैदा कर रही है। यह जो चमकदार जनतंत्र है इसमें जनता कहाँ है? यह चमक चंद लोगों के लिए है। देवताले इस नई अर्थव्यवस्था के द्वारा बदले भारत की भयावह तस्वीर पेश कर रहे हैं।

चंद्रकांत देवताले के यहाँ चिंतन बहुत गहरे धँसकर आया है। यह समाज और समय क्यों कठिनतम होता जा रहा है, देवताले यह जानते हैं और इसे इशारों में कहना भी चाहते हैं। 'यह तो उजागर है कोई फर्क नहीं आपकी निगाहों में मिसाइलें बनाने और वीणा बजाने में।' देवताले इस संस्कृति की चिंता में उदास हैं और यह पूछ रहे हैं कि आखिर इतिहास की यह फटी कमीज कौन रफू करेगा। संस्कृति और समय की यह बेइंतहा चिंता ही चंद्रकांत देवताले को हमारे समय का एक जरूरी कवि बनाती है और इस संग्रह को महत्वपूर्ण।

पुस्तक : पत्थर फेंक रहा हूँ
कवि : चंद्रकांत देवताले
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
मूल्य : 250 रुपए

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