प्रिंट मीडिया पर केंद्रित उपन्यास

Webdunia
- डॉ. महेश दुब े
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विलास गुप्ते ने अपने चार कहानी संग्रहों, एक उपन्यास और पाँच नाटकों द्वारा साहित्य में अपनी अलग पहचान बनाई है। 'शेष आखिरी पृष्ठ पर' उनका दूसरा उपन्यास है, जो प्रिंट मीडिया पर केंद्रित है।

उपन्यास में प्रिंट मीडिया के मायालोक की कहानी प्रस्तुत की गई है। उपन्यास का एक पात्र भूषणजी विनय और गर्व के मिले-जुले भाव के साथ कहता है : 'साली ये पत्रकारिता चीज ही ऐसी होती है, कि अपने जादू से आदमी को बकरा बना देती है। कुछ लोग इसके जाल में नहीं भी फँसते, हमारे जैसे तुरंत शिकार हो जाते हैं।'

विलास को किस्सागोई में महारत है। इसलिए अपने इस उपन्यास में वे इसी शैली में पत्रकारिता के माया जगत का एक विराट रूपक रचते हैं। उपन्यास में वर्णित प्रसंग ऐसे हैं, जो समाचार संकुल में आम हैं और घटते रहते हैं। पाठक इन घटना-प्रसंगों को 'बिटवीन द लाइंस' पढ़ते हुए, इनके पीछे के असली पात्रों एवं घटनाक्रमों को 'आइडेंटिफाय' करने की कोशिश भी कर सकते हैं। उपन्यास प्रिंट मीडिया का कथा रोजनामचा लगता है। यद्यपि आँसू और सिसकियों के साथ शुरू होकर यह 'खबर अभी खत्म नहीं हुई' (अर्थात सब कुछ अभी समाप्त नहीं हुआ) जैसे उम्मीद के सुखद नोट के साथ समाप्त होता है। पर इसका केंद्रीय तत्व दुःख ही है। फिर चाहे वह दुःख उदयाभानु का हो या प्रवीण का।

उपन्यास में पत्रकारिता जगत की कई समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है। अंशकालिक पत्रकारिता, अनपढ़ पत्रकारों की बहुलता और पाले हुए पत्रकारों की समस्याओं पर उपन्यास में तीखी टिप्पणियाँ हैं। विलास पत्रकारिता में भाषा की अराजकता की ओर ध्यान खींचते हुए, शब्दों की एकरूपता और मानक शब्दों के प्रयोग पर बल देते हैं।

उनका सुझाव है कि पत्रकारों को भी पाठक बनना चाहिए। उपन्यास में मुख्य पात्र उदयभानु के माध्यम से लेखक ने कई स्वयं स्वीकृत निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं, जो अब व्यापक रूप से ग्राह्य हैं- जैसे -यह एक बहुत बड़ा भ्रम है कि अखबार पाठकों का मार्गदर्शक या संरक्षक होता है। -आदर्श पत्रकारिता के दिन अब लद गए। -अखबार सत्ताधारी दल के खिलाफ लिखेगा पर सरकारी विज्ञापन की कीमत पर नहीं। आदि-आदि!

उपन्यास में कई नए शब्दों का प्रयोग हुआ है, जैसे 'तब तक सारा शहर मलूल हो चुका होता है।' मलूल अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है उदास। जहाँ, 'वह नमस्कारणीय हो गया था' जैसे वाक्य पाठक को चौंकाते हैं तो वहीं उपमा-उपमेय की नई भाषा- अभिव्यंजना के प्रयोग उपन्यास की पठनीयता को रुचिकर बनाते हैं। जैसे- अभी सूर्यास्त नहीं हुआ था पर आसमान में भोर का हल्का-सा उजाला, पेड़ों की ऊँची टहनियों से दातून तोड़ने लगा था।'

पुस्तक : शेष आखिरी पृष्ठ पर
लेखक : विलास गुप्ते
प्रकाशक : ज्ञान भारती, 4/14, रूपनगर, दिल्ली-7
मूल्य : रु. 150/-

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