बालम, तू काहे ना हुआ एनआरआई

व्यंग्य के बहाने आज की दुनिया का सच

Webdunia
प्रदीप कुमार
ND
बालम, तू काहे ना हुआ एनआरआई' शीर्षक से अंदाजा लग जाता है कि इस पुस्तक में एनआरआई न होने की बेबसी का चित्रण होगा। पुस्तक जब व्यंग्य संग्रह की हो तो इस बेबसी के इर्द-गिर्द कितने चिलचस्प मतलब निकल सकते हैं, इसका आकलन भी संभव है। लेकिन यकीन मानिए अगर इसे बुनने वाला आलोक पुराणिक जैसा व्यंग्यकार हो तो फिर एनआरआई न होने की बेबसी कहाँ-कहाँ और किस तरह से सामने आ सकती है, इसका अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है।

आलोक खुद एक पत्रकार रहे हैं, और इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में वाणिज्य का अध्यापन कर रहे हैं। लिहाजा बाजार और उसका आम जीवनशैली पर पड़ने वाले असरों को बार‍ीकी से पकड़ने में वे निष्णात हो चुके हैं लेकिन उनकी खासियत यह है कि वे इसे सरल और मारक शब्दों में इन्हें व्यंग्य की शक्ल भी दे देते हैं। संकलन का पहला ही व्यंग्य है 'बालम, तू काहे न हुआ एनआरआई'।

इसमें एक जगह कहा गया है-'सब तरफ यही संदेश सुनाई दे रहा है। सिर्फ बालम होने से अब काम नहीं चल रहा है, परदेशी होना जरूरी हो गया है। बालम के बाजार में देशी बालमों की कोई पूछ नहीं रह गई है। इतना ही नहीं आलोक इसमें यह बताने की कोशिश करते हैं कि परदेशी पकौड़ेवाला भी स्वदेशी प्रोफेसर पर भारी पड़ रहा है।'

संकलन का दूसरा व्यंग्य है, 'सुक्खी लाला की याद आती है।' यह व्यंग्य मिडिल क्लास की बैंकों पर बढ़ती निर्भरता पर चोट करने वाला है। आम लोग सर से पांव तक बैंक के कर्ज में डूबने की लालसा के बीच लेखक का मासूम सवाल भी है- एक बात समझ में नहीं आती है, जिन्हें जरूरत है उन्हें सिटी बैंक वाले नहीं देते और जिन्हें जरूरत नहीं है उन्हें सिटी बैंक वाले फोन कर-करके लोन देना चाहते हैं। वे पूछते हैं कि बीमार माँ को देखने के लिए बेगूसराय जाने के लिए पैसे नहीं मिलेंगे लेकिन आस्ट्रेलिया के 'एक्साइटिंग टूर' के लिए पैसे मिल जाते हैं कैसे? एक व्यंग्य है 'भाई हो तो ऐसा।' इसमें लेखक पड़ोस की एक शादी के परिपेक्ष्य में चित्रित करता है कि किस तरह नाते रिश्तेदार ही आजकल अपनों को शर्मसार करने में जुटे रहते हैं।

एक व्यंग्य में 51 इंची टीवी सेट की महिमा को दर्शाते हुए कहा गया है कि कोई भी आदमी आजकल 51 इंची टीवी सेट के बिना खुश नहीं हो सकता है। बाजार के साथ-साथ राजनीति भी पुराणिक की नजरों से अछूते नहीं हैं। पाकिस्तान के साथ वार्ता पर वे एक ललित निबंध लिखते हैं। पुराणिक दावे के साथ यह भी कहते हैं कि यह लेख पाँच सौ साल बाद भी जस का तस छापा जा सकता है, प्रासंगिक रहेगा।

ऐसा ही एक व्यंग्य चुनावी डायरियों के कुछ पृष्ठ से बना है, जो एक नेता की पत्नी का चुनाव के सीजन में लिखी गई डायरी के अंश हैं। आलोक इन सबके बीच जीवनसाथी को टाइट रखने के फंडे भी बताते दिखे है, 'माँ बनाम मम्मी' और 'देवदास की नई कहानी' जैसे व्यंग्य से जाहिर होता है कि पुराणिक पॉपुलर कल्चरों के बहाने भी व्यंग्य कहने के मौके तलाशते रहे हैं। संकलन में कुल 69 व्यंग्य शामिल हैं जो यह बताते हैं कि समय के साथ आलोक पुराणिक अपने विषयों का दायरा लगातार विस्तृत करते जा रहे है।

पुस्तक : बालम, तू काहे ना हुआ एनआरआई (व्यंग्य संग्र ह)
लेखक : आलोक पुराणिक
प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन
मूल्य : 250 रुपए

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