मां के बेहद लाड़ले थे लाल बहादुर शास्त्री

एक आवाज पर दौड़े आते थे शास्त्री जी

भाषा
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देश के दूसरे प्रधानमंत्री रहे स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री अपनी सारी व्यस्ताओं के बावजूद अपनी मां के साथ कुछ पल बिताना नहीं भूलते थे और बाहर से चाहे वे कितना ही थककर आएं अगर मां आवाज देती थीं तो वह उनके पास जाकर जरूर बैठते थे।

लालबहादुर शास्त्री पर उनके पुत्र सुनील शास्त्री द्वारा लिखी पुस्तक 'लालबहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी' में बताया गया है कि शास्त्री जी की मां उनके कदमों की आहट से उनको पहचान लेती थीं और बड़े प्यार से धीमी आवाज में कहती थीं..'नन्हें, तुम आ गए?’’ सुनील शास्त्री ने कहा कि आज की पीढी जहां अपने बुजुर्गो की उपेक्षा करती है और आमतौर पर बुजुर्गों की शिकायत रहती है कि उनकी संतान उनकी अवहेलना करती है वहीं शास्त्री जी अपनी सभी व्यस्तताओं के बावजूद मां की कभी अनदेखी नहीं करते थे।

किताब के अनुसार शास्त्री जी ‘चाहे कितनी ही परेशानियों से लदे हुए आए हों, मां की आवाज सुनते ही उनके कदम उस कमरे की तरफ मुड़ जाते थे, जहां उनकी मां की खाट पड़ी थी।' पुस्तक में लेखक ने लिखा है कि 'सारी उलझनों के बावजूद वे पांच एक मिनट अपनी मां की खाट पर जा बैठते। मैं देखता, दादी का अपने बेटे के मुंह पर, सिर पर प्यार से हाथ फेरना और भारत के प्रधानमंत्री, हजार तरह की देशी-अंतरदेशी परेशानियों से जूझते जूझते अपनी मां के श्रीचरणों में स्नेहिल प्यार में लोट पोट।’ एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि 60 वर्ष या इससे ज्यादा की उम्र वाली आबादी के लगभग 31 प्रतिशत बुजुर्गों को अपने परिवार के सदस्यों की उपेक्षा, अपमान और गालीगलौज झेलना पड़ता है और पांच में से एक बुजुर्ग परिवार का साथ तलाश रहा है।

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पुस्तक के अनुसार शास्त्री जी की मां रामदुलारी 1966 में शास्त्री जी के निधन के बाद नौ माह तक जीवित रहीं और इस पूरे समय उनकी फोटो सामने रख उसी प्यार एवं स्नेह से उन्हें चूमती रहती थीं, मानों वह अपने बेटे को चूम रही हों। सुनील शास्त्री के अनुसार उनकी दादी कहती थीं..'इस नन्हे ने जन्म से पहले नौ महीने पेट में आ बड़ी तकलीफ दी और नहीं जानती थी कि वह इस दुनिया से कूच कर मुझे नौ महीने फिर सताएगा।'

किताब के अनुसार शास्त्री जी के निधन के ठीक नौ माह बाद उनकी माता का निधन हो गया था। लेखक लिखते हैं, 'दादी का प्राणांत बाबूजी के दिवंगत होने के ठीक नौ महीने बाद हुआ। पता नहीं कैसे दादी को मालूम था कि नौ महीने बाद ही उनकी मृत्यु होगी।' वर्ष 1965 भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद शास्त्री जी दोनों देशों में संधि के लिए बातचीत करने ताशकंद गए थे और वहीं 11 जनवरी 1966 को उनका निधन हो गया था। उनकी मृत्यु आज तक सुभाष चन्द्र बोस की तरह ही रहस्य बनी हुई है।

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