मानव का 'प्रकृतिघात'

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ड ॉ. पवन कुमार की पुस्तक 'प्रकृतिघात' पूर्णतः प्रकृति को समर्पित पुस्तक है। वन्यजीवों के प्रति संवेदना जगाने का एक अच्छा, रोचक और सराहनीय प्रयास उन्होंने किया है। इस कहानी संग्रह के माध्यम से पशु-पक्षियों के जीवन का कठोर सच हमारे सामने आता है।

भौतिकता में हर बात को विस्मृत करते मानव को निश्चित रूप से यह कहानी संग्रह एक अदृश्य और अनछुए पहलू पर सोचने को विवश करेगा। किस तरह से एक वन्य प्राणी अपने जीवन को बचाने के लिए,अपनी पेट की ज्वाला को शांत करने का प्रयास करता है और फिर मारा जाता है,इसका करुणामय चित्रण करने में कहानीकार ने सफलता पाई है।

प्राचीन भारतीय जीवन पद्धति में प्रकृति को कितना अधिक स्थान प्राप्त था, यह चित्रित करने में भी कहानीकार सफल रहा है। 'लौटा दो मुझे मेरा वो आदर्श बर्बरपन' रूसो की वो भावुक आवाज भी इस कहानी संग्रह में कहीं न कहीं प्रतिध्वनित होती है। रूसो ने अपने सामाजिक समझौता सिद्धांत में यह बात कही थी कि आधुनिक सभ्यता के पहले मानव बिलकुल प्राकृतिक जीवन जीता था। उसका जीवन उस समय बिलकुल सीधा-सादा था। प्रकृति के आगोश में समाया हुआ मनुष्य का जीवन पूरी तरह सुखी था।

' हे अर्जुन, वृक्षों में पीपल हूँ' दर्शाता है कि भारतीय दर्शन के कण-कण में किस तरह प्रकृति समाई हुई थी। यह संदेश देने का प्रयास भी प्रकृतिघात में दिखता है। बंदरों, मोरों, नागों और अन्य वन्य जीवों के महत्व को समझाने की कोशिश लेखक ने पौराणिक आख्यानों द्वारा की है।

कई जगह पर वन्य जीवों के पात्रों में लेखक ने शताब्दियों पूर्व विष्णु शर्मा द्वारा रचित 'पंचतंत्र' द्वारा स्थापित वन्य जीव के पात्रों के मानक आदर्शों को भी छुआ है। हालाँकि इनके पात्र कई जगह एक-सा व्यवहार करते पाए जाते हैं।

डॉ. पवन कुमार ने प्रकृति की तरफ से एक अच्छा प्रतिवेदन उसकी कृपा पर निर्भर मनुष्यों के सामने रखा है। यह दस्तावेज एक चेतावनी भी है और प्रकृति की ओर से दिया गया 'जियो और जीने दो' का संदेश भी। भारतीयों का दर्शन अब कितना स्वार्थी हो रहा है, यह बताने की एक कोशिश लेखक ने यहाँ की है।

साथ ही यह इंगित करने में भी लेखक सफल रहे हैं कि यह वही भारत है जहाँ की संस्कृति की रग-रग में 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' और 'जियो और जीने दो' की अवधारणा समाई थी। 'प्रकृतिघात' कहानी संग्रह में कुल सोलह कहानियाँ हैं। सुंदर मनोहारी वन्य जीवों के प्राकृतिक दृश्यों से सजा यह कहानी संग्रह आकर्षक और रोचक है।

पुस्तक : प्रकृतिघात
लेखक : डॉ. पवन कुमार
प्रकाशक : शिवकुमार खरे, अमानगंज मार्ग, छतरपुर (मप्र)
मूल्य : 150.00 रुपए

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