मिलजुल मन : विशेष शैली का उपन्यास

पुस्तक समीक्षा

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दिनेश द्विवेदी
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मृदुला गर्ग का उपन्यास 'मिलजुल मन' एक अलग ही ढब का उपन्यास है। ढब से मेरा मतलब उनकी अपनी उस विशिष्ट शैली से है जिसमें वे हमेशा लिखती रही हैं। यद्यपि शैली, किस्सागोई का अंदाज-ए-बयाँ, मुल्क की दुविधाग्रस्त सामाजिक, राजनीतिक और पारिवारिक मनःस्थिति के अलावा इसके सारे किरदारों का अलग-अलग दरम्यानी वजूद होते हुए भी कहीं न कहीं यकसाँ नुक्ता-ए-नजर। वैसे भी मृदुला जी तुक में बेतुक, बेतुक में तुक और संगति के साथ विसंगति, विसंगति के साथ संगति सब कहाँ और कैसे बिठा दें, यह तरतीबी उनके पाठकों के लिए नई नहीं हैं।

मैं एक बात स्पष्ट कर दूँ कि उनकी इस लीक से हटकर लिखी गई कृति पर समीक्षा करना मेरा उद्देश्य बिल्कुल भी नहीं है। उसका एक कारण है, वैसे भी मैं उन्हें लेकर या उनके लिखे को लेकर कभी भी नक्कार की भूमिका में नहीं रहा हूँ। उनकी हर कृति, उनके हर उपन्यास और कहानी के सारे चरित्र, एक पाठक की हैसियत से मेरे रग-ओ-रेशे में मौजूद रहे हैं और वैसे भी इस उपन्यास को लेकर जो समीक्षाएँ देखने में आई वह न तो एकमुश्त समीक्षक के नजरिए स्पष्ट कर पाई हैं और न ही कथानक के साथ न्याय।

बहरहाल 'मिलजुल मन' की समीक्षा के दौरान निश्चित ही हमारे वाद-प्रवाद विमर्श आदि-आदि सारी धारणाओं को ध्वस्त कर यह उपन्यास 50 के दशक के मध्यम वर्ग की जिंदगी और सामाजिक पारिवारिक स्तर पर आने वाले बदलाव और उसी के समानांतर स्वतंत्र भारत के मूल्यों की गहन पड़ताल मोगरा, गुलमोहर, बैजनाथ, कनकलता, डॉ. कर्ण सिंह, मामा जी, जुग्गी चाचा आदि के माध्यम से निहायत तदाकार होकर की गई है।

पं. जवाहरलाल नेहरू की बराबरी से देश में जो नई नस्ल पनप रही थी और पक चुकी थी, इन सबके चेहरे शबगजीदा सहर में नजर आते हैं क्योंकि राजनीतिक स्तर पर पंचवर्षीय योजनाओं, आधुनिकता का लिबास धारण करता देश और खाँटी भारतीय चरित्रों की स्वार्थपूर्ण राजलिप्स और पद-लोलुपता को विभिन्न पात्रों के मुख से कहलाकर मृदुला ने इतना गहरा पोस्टमॉर्टम किया है कि किसी राजनीतिक चिंतक या विचारक से अलग हटकर एक आम आदमी के मुगालतों का स्खलन दिखाई देता है।

दुविधा मृदुला जी के पात्रों का प्रमुख गुण है। अन्य लेखकों की तरह वे अपने पात्रों की न तो उँगली पकड़कर चलती है और न ही पाठकों की कोई तयशुदा निष्कर्ष पर पहुँचाने में मदद करती है। आप स्वयं ही उनकी लेखन यात्रा के दौरान अपने निष्कर्ष, अपनी सोच और बुद्धि की सीमानुसार निकालने पड़ते हैं।

किसी भी पात्र के पक्ष-विपक्ष से परे हट एक तन्मय तटस्थता के साथ वे अपना सरोकार रखती है। इसीलिए कई बार उनके गुजर चुके उपन्यासों पर बरसों बाद मुड़कर देखने की मजबूर होना पड़ता है। यह आत्मकथात्मक, संस्मरणात्मक रचना मृदुला गर्ग के लेखन की मंजिल नहीं है और न ही पड़ाव बल्कि झटके से लिया गया एक यू-टर्न है। इस कृति से वे एक अलग ही ढंग की (या ढब) जानी जाएँगी।

पुस्तक : मिलजुल मन
लेखिका : मृदुला गर्ग
प्रकाशन : सामयिक प्रकाशन
मूल्य : 495 रुपए

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