लोहिया : एक जीवनी

Webdunia
महेन्द्र तिवारी
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डॉ. राममनोहर लोहिया को सतही जानने वाले उन्हें समाजवाद के जनक या गैरकांग्रेसवाद के अगुआ के तौर पर ही देखते हैं। वास्तव में उनका जीवन इन दोनों ही पहचानों से बहुत इतर था। असल मायनों में वे राजनीति के ऐसे संत थे, जिसने समाज में समानता की नई सुबह का सूत्रपात किया। भारतीय सियासत और सभ्यता का ऐसा चेहरा जिसने समाज को समदर्शन का पाठ पढ़ाया।

ओमप्रकाश दीपक और अरविंद मोहन की पुस्तक 'लोहिया : एक जीवनी' लोहिया की जिंदगी की हर परत को बड़ी खूबसूरती से खोलती है। 180 पृष्ठों वाली इस किताब में लेखकद्वय ने न केवल इस समाजवादी नेता को समग्रता से परिभाषित किया है, वरन उनके दौर की राजनीतिक विचारधारा, समाज और अवधारणाओं की सिलसिलेवार तह बनाई है।

  असल मायनों में वे राजनीति के ऐसे संत थे, जिसने समाज में समानता की नई सुबह का सूत्रपात किया। भारतीय सियासत और सभ्यता का ऐसा चेहरा ...       
लोहिया के विराट व्यक्तित्व और व्यापक राजनीतिक क्षितिज की कहानी उनके विचारों से स्पष्ट छलकती है। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के खुले अधिवेशन में एक बार लोहिया ने कहा था- 'आजाद हिंदुस्तान में हर आदमी राजा होगा और हर औरत अपने हक से राजा होगी, राजा की पत्नी होने के नाते रानी नहीं'।

काफी कम लोग जानते होंगे कि जब 1933 में जर्मनी में एडोल्फ हिटलर सत्तासीन हुआ, डॉ. लोहिया जर्मनी में अपने शोध प्रबंध को पूरा कर रहे थे।
पुस्तक कहती है लोहिया अनशन के घोर विरोधी थे। उनकी राय में इससे दोहरा नुकसान होता है। एक तो अनशन सामूहिक आंदोलन लेकर जनचेतना के विकास को अवरुद्ध कर देता है। दूसरा, अनशन की घोषणा करने वाले इसे बीच में तोड़कर झूठ और पाखंड को बढ़ावा देते हैं।

यह दिलचस्प बात है कि गाँधीजी को राजनीति में जीवित उन्हीं लोगों ने रखा, जो कभी खुद को गाँधीवादी नहीं कहते थे। ऐसे लोगों की जमात में लोहिया का नाम सबसे ऊपर था। वे असहमति के बावजूद गाँधी के परम भक्त थे, लेकिन नेहरू के सिद्धांतों ने कभी उन्हें छूआ तक नहीं। अलबत्ता वे पंडितजी का सम्मान बहुत करते थे।


लेखकों के मुताबिक समाजवाद आंदोलन के लोग, उसके प्रशंसक, विरोधी और स्वयं लोहिया खुद को सांगठनिक मामलों में अकुशल मानते थे। इस मामले में सबसे ज्यादा लोहा जेपी ने मनवाया।

  यह दिलचस्प बात है कि गाँधीजी को राजनीति में जीवित उन्हीं लोगों ने रखा, जो कभी खुद को गाँधीवादी नहीं कहते थे। ऐसे लोगों की जमात में लोहिया का नाम सबसे ऊपर था....      
लोहिया ने कभी ईश्वर को नहीं माना। उन्होंने कर्मकांड की भी मुखालफत की, लेकिन वे रामायण और महाभारत को भारतीय समाज के लिए अतिविशिष्ट मानते थे।

आसान शब्दों के इस्तेमाल ने पुस्तक की रोचकता को अक्षुण्ण रखा है। भाषायी दृष्टि से भी रचना प्रभावोत्पादक बन पड़ी है। किताब को पंद्रह इकाइयों में बाँटा गया है। हर हिस्सा अपने आप में सफा-दर-सफा एक नई जानकारी समेटे हुए है। समाजवाद और उसकी वास्तविक पृष्ठभूमि व उद्भव को समझने के इच्छुक पाठकों के लिए यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी।

पुस्तक-लोहिया : एक जीवनी
लेखक-ओमप्रकाश दीपक व अरविंद मोहन
प्रकाशक-वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर
मुल्य-एक सौ पचहत्तर रुपए
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