पुस्तक समीक्षा : ग़ज़ल कविता सप्तक (साझा संग्रह)

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समीक्षक : एम.एम. चन्द्रा 
नए रचनाकारों को लेकर हमेशा से ही छींटा-कशी, उठा-पटक का दौर चलता रहा है, लेकिन सृजन की जमीन से जुड़ा रचनाकार समय के साथ हमेशा अपने आप को परिष्कृत करता हुआ आगे बढ़ता है। जिसने अपने समय को नहीं पहचाना वह स्वयं ही विदा हो जाता है, लेकिन जिनकी रचनाएं अपने समय का प्रतिनिधित्व करती हैं, उन्हें हर युग में याद किया जाता है। नवीन कविता ग़ज़ल सप्तक भी एक ऐसा ही संकलन है, जो हमारे समय के विभिन्न रचनाकारों को पाठक के सामने लाता है।
 
‘पार्वती प्रकाशन’ इंदौर से प्रकाशित सप्तक सीरीज की पुस्तक कविता ग़ज़ल (सप्तक) भी मुझे एक प्रयोग से कम नहीं लगी, जिसमें सामूहिक रचनाकर्म सामुहिक प्रकाशन। वैसे भी यह प्रयोग कोई नया तो नहीं है, लेकिन प्रकाशक ने भी एक प्रयोग किया है। नव रचनाकारों ने सप्तक में निर्भय होकर सृजनात्मक पहल करने का साहस करके एक अलग पहचान बनाने की सफल कोशिश की है।
 
‘ग़ज़ल-कविता सप्तक’ के प्रथम रचनाकार ‘श्रीश’ अपनी गजलों द्वारा मानवीय संवेदना में आई गिरावट का बारीकी से मुआयना करते हुए मुकम्मल गजल कहते हैं। इसलि‍ए किसी भी नएरचनाकार को पढ़कर मुझे उत्साह मिलता है। साथ ही इस बात पर बल मिलता है कि नए रचनाकार बदलते समाज को देख रहे हैं और उन चुनौतियों को पाठक वर्ग के सामने ला रहे हैं।
 
मासूम बेगुनाहों के सीने पे गोलियां, 
सुनकर के उनकी आह कैसे बेअसर हुए...
 
मृणालिनी घुले की गज़लें पाठकों को उजालों की तरफ इशारा करती हुई धुंध को साफ करके, घने काले स्याह रंग को अपनी गजलों से रोशन कर देती हैं।
 
जो किया अच्छा किया है जिंदगी
तूने सबकुछ ही दिया है जिंदगी
 
रातें तो हमारी भी हो रोशन 
गर एक सितारा मिल जाए 
 
हो गई है शाम चरागों को जला लो पहले 
गीत बन जाएगा साजो जो मिला लो पहले ....
 
राम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविताएं सामाजिक सरोकार के ताने-बाने में रची बसी छंद मुक्त कविताएं हैं, जो गैर बराबरी पर आधारित व्यवस्था को चुनौती ही नहीं देती, बल्कि पाठकों को सामाजिक सरोकार तक लिए हुए भी अपने कार्यभार को चिन्हित करती हैं। इनकी कविताएं वैचारिक दृष्टि से काफी उन्नत हैं जो पाठक को उद्वेलित करती हैं - 
 
चलना है मुझे अपनी ही जमीन पर 
जैसी भी हो ऊबड़ खाबड़ पथरीली 
गड्ढे वाली ... 
अकेलापन खुद को खुद से, 
सिखाता है प्यार करना
भीड़ में खड़ा व्यक्ति भले ही भ्रम में रहे 
सूरज फिर भी सूरज है 
सबको जीवन देते हुए भी 
वह कितना अकेला है 
नितांत अकेला ...... 
और हो भी क्यों न 
जो दूसरों के लिए जीते हैं 
अपने लिए पाते हैं 
सदैव अकेलापन ..... 
 
उमा गुप्त की कविताएं परंपरावादी मूल्यों को तोड़ती हुई नई पीढ़ी का आवाहन करती हैं। अनंत आकाश में खुली हवा जैसा अहसास कराती हैं कि अपने पंख फैलाओ बिना डरे, दिन हो या रात विचरण करो, कठिनाइयों का सामना करो, ये दुनिया तुम्हारी है....
 
तुम शक्ति को पहचानो अपनी, 
जो उचित है आवश्यक है, सत्य है 
बस वही है मात्र सहारा 
फिर देखो होगा, आज तुम्हारा 
और कल भी तुम्हारा 
 
मनोज चौहान पिछले एक वर्ष से मीडिया में अपनी जगह बनाने में कामयाब हुए हैं। यह भी पिछले कई वर्षों से साहित्य समाज में हो रहे नए परिवर्तन का नतीजा है, जिससे नए रचनाकारों का उद्भव हुआ। वरना हम कभी भी मनोज चौहान जैसे रचनाकारों से हमेशा अनजान रहते। मनोज चौहान की रचनाएं, व्यक्ति के अंतर्मन के द्वंद्व को पाठक के सामने प्रस्तुत करती हैं। कविताएं समय और व्यक्ति के द्वंद्व को उकेरती हुई अपने से संवाद और संघर्ष करती हैं। अधिकतर रचनाएं एक आदमी की आशा, निराशा, चुनौतियां, संवेदनाएं, उसका अलगाव जैसी तमाम अभिव्यक्तियों को पाठक तक पहुंचती है - 
 
झनझनाहट के साथ 
थम जाता है 
फिर उफान 
में लौट आता हूं 
पुनः 
उसी जगह ! 
 
एक तरफ वंदना सहाय के हायकू चुटीलापन, व्यंग्यनुमा और तीखापन लिए हुए तीन लाइन है, जो एक संपूर्ण कथन कह जाती हैं। जो गागर में सागर भर देने जैसी कहावत को चरितार्थ करती है - 
 
कैसे ये नेता 
कुर्सी से करें वफा 
देश से जफा... 
 
वहीं दूसरी तरफ डॉ. सोना सिंह, गंभीर से गंभीर राजनीतिक, वैचारिक, सांस्कृतिक समस्या चिन्हित ही नहीं करती, बल्कि उन सब का समाधान भी खोजती हैं - 
 
टोपी पर क्रांति लिखने से 
नहीं आएगी क्रांति, उसके लिए 
दुनिया बदलो 
दुनिया बदलनी है तो खुद 
पहले सोच को बदलो 
  
हरिप्रिया की कविताएं प्रेम की कविताएं हैं। वे प्रेम के विभिन्न पक्षों, संबंधों, विसंगतियों, अहसास व्यक्त और अव्यक्त प्रेम की अभिव्यक्तियों का चित्रण बेबाकी से करती हैं। उनकी कविताएं एक तरफ प्रेम का संदेश देती हैं, तो दूसरी तरफ जो प्रेम नहीं है, वे अभिव्यक्तियां भी पाठक के सामने आती हैं- 
 
उनके नाम थे 
प्रेमी... प्रेम आकाश ... प्रेम सिंह.. प्रेमनाथ 
प्रीति... स्नेहा... प्रेमा... 
लेकिन वे अपने नाम के विपरीत 
बांट रहे थे नफरत 
जहां ढूंढ़ा प्रेम वह वहां नहीं था 
जब भीतर ढूंढा उसे 
  
 
पुस्तक : गजल कविता सप्तक (साझा संग्रह ) 
संपादक :जितेन्द्र चौहान 
प्रकाशक :पार्वती प्रकाशन, इंदौर 
कीमत :100 
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