प्रारंभिक दौर में व्यंग्य को विधा के रूप में नहीं लिया जाता था, किंतु समय के साथ इसके बढ़ते प्रभाव के कारण अब इसे एक विधा के रूप में मान्य किया जाता है। कोई भी कथन, कहीं भी व्यंग्य उत्पन्न कर सकता है। सामान्य जन जो भी वार्तालाप करते हैं, अक्सर उसमें भी व्यंग्य का पुट दिखाई दे जाता है।
कई बार यह हमारे हाव-भाव से भी प्रकट होता है। देखा जाए तो हमारे आसपास बिखरी हुई असमानता, उपेक्षा और दिखावटी क्रिया-कलापों में यह मौजूद होता है। यहां किए गए कटाक्ष, तीखे बोल-वचन या भाव-भंगिमा ही व्यंग्य कहलाते हैं। प्रभावित पक्ष इसे महसूस करता है और खींसे निपोरता या उग्रता धारण किए मिलता है। कुल मिलाकर - ताना मारना, चुटकी लेना, कमजोर मनोवृत्ति पर प्रहार करना या किसी बुराई को अलग लहजे में व्यक्त करना ही व्यंग्य है। मेरा मानना है कि सच्चा व्यंग्य सदैव ही परोक्ष होता है। प्रत्यक्ष में किया गया व्यंग्य- बिना मचान के शेर के शिकार करने जैसा होगा।
व्यंग्य के यह सभी आवश्यक तत्व डॉ. सुशील सिद्धार्थ के 47 व्यंग्य लेखों के संकलन "मालिश महापुराण" में आपको मिल जाएंगे। इन्हें पढ़ते हुए आपके अधरों पर मुस्कुराहट तो होगी ही पर कहीं न कहीं मन में उथल-पुथल भी मचेगी। कभी-कभी आपको ऐसा भी लगेगा जैसे कहीं हम ही तो नहीं हैं वह किरदार, जो दादा भाई के व्यंग्य में आया है। ऐसा इसलिए भी लग सकता है क्योंकि जब हम पढ़ रहे होते हैं तो हमारे अंदर के उमड़ते- घुमड़ते हर भाव पर उनकी पैनी नजर होती प्रतीत होती है। जिन पर उन्होंने अपनी बेबाक कलम चलाई है।
पात्र और स्थिति के अनुसार ही इन लेखों में स्वाभाविक शाब्दिक चयन भी हुआ है। ठेठ देहाती से लेकर दोहा, मुहावरे और लोकोक्ति के अलावा अंग्रेजी के शब्द भी रोचक ढंग से आए हैं। "कुल मिलाकर" सहज, सरल और सुगम्य शब्दों में लिखा गया यह संकलन किताबघर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है।
इस अद्भुत और रोचक संग्रह की यहां मैं समीक्षा नही कर रहा पर मेरा आग्रह है सुधी पाठकों से कि वे एक बार इसे पढ़ें अवश्य।
आवरण के दूसरे पृष्ठ पर अंकित उनके व्यंग्य की एक बानगी देखिए - "सच में उत्तर आधुनिकता नही यह दक्षिण आधुनिकता है। बहू को जलाने/ मारने के बाद इसी मंदिर पर अखंड रामायण का आयोजन होता है। यहीं लड़कियां प्रार्थना करतीं हैं कि - हे प्रभु ! हमें सुरक्षित रखो। यहीं उसी प्रभु से अरदास होती है कि हमें बलात्कार के लिए लड़कियां दो। प्रभु सबकी सुनते हैं।"
सबको दिशा देता यह संग्रह पठनीय तो है ही, मार्गदर्शक भी है। आप भी पढ़िए। लेखक एवं प्रकाशक के साथ ही सभी पाठकों को भी हार्दिक बधाई। शुभकामनाएं। आभारी हूं दादा भाई ने मुझे पढ़ने का अवसर दिया।