पुस्तक समीक्षा : शब्दध्वज

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" प्रतिभा प्रकट हुए बिना नहीं रहती "
     ‘‘प्रतिभा’’ किसी भी क्षेत्र में हो वह बिना प्रकट हुए नहीं रहती। बस उसे सही दिशा मिलना चाहिए। फिर यहां तो लेखिका का नाम ही प्रतिभा है। जाहिर है यह बर्हिमुखी ही होगी। अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए जिस तरह हम अच्छे-अच्छे परिधान, आभूषण धारण करते हैं उसी तरह अपने कृतित्व को निखारने के लिए अच्छे विचारों का भी होना जरूरी है। यह अभिव्यक्ति चाहे बोल-चाल में हो या लेखन में हो, मन को महका देती है, अपना भी और, औरों का भी। 
 
यदि हमारे विचार सकारात्मक हुए तो यही लेखन पाठकों में ऊर्जा और प्रेरणा का संचार करता है, लेकिन नकारात्मक विचार नैराश्य और अवसाद का कारण भी बनते हैं। जब हम एक लेखक होते हैं तो हमको यह ध्यान में रखना चाहिए कि कहीं हमारे व्यक्तिगत विचार, सार्वजनिक होकर किसी का अहित तो नहीं कर रहे। यह एक बड़ी जिम्मेदारी होती है लेखक की, कि वह अपने लेखन से समाज को, राष्ट्र को सजग करते हुए सही दिशा का बोध कराए। प्रतिभा जी के लेखन में मुझे यही दिखता है। उनकी रचनाएं सशक्त है और चिंतन का दायरा भी बड़ा है। नई कविताएं, मुक्तक, गजल, ‘सर्वभाव’ लिए दिखते हैं। सरल, सहज भाव से उपजा उनका चिंतन यथार्थ पर टिकता है जो पाठकों को प्रभावित किए बिना नहीं रहता। यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता लगती है मुझे। वीणा पाणि मां सरस्वती की वंदना करते हुए वे अपनी आत्मा को सद्गुणों के ज्योर्तिमय प्रकाश से आलोकित करने की अभिलाषा रखती है। साथ ही प्राण के छूटने पर मां के चरणों में ही समाहित होने की प्रार्थना, उन्हें सबसे अलग बना देती है।
 
‘दे दे आशीर्वाद’ रचना में प्रतिभा जी, अपनी कविताओं को मन के सागर की कश्ती बताती है। सच भी है विचारों का समुद्र बहुत गहरा है और लेखन को निरंतर आगे बढ़ाता है - कश्ती की तरह। झंझावात तो आऐंगे ही। सामाजिक विदरुपताओं पर भी आक्रोशित उनका मन तीखी मार करता है। समझदारी में वे बेटी को कोख में मार देने जैसे संकीर्ण विचारों को आड़े हाथ लेते हुए आधुनिक और रूढिवादी वर्ग पर सीधी चोट करती हैं। ‘उलझन’ में प्रतिभा जी तकनीक के दुरूपयोग पर भी मारक प्रहार करती है।
 
‘‘मां खुद नहीं सोती’’ शीर्षक में लिखी कविता ने मन को झंकृत कर श्रद्धा और प्रेम से भर दिया। एक मां का अपनी संतान के प्रति समर्पित पूरा जीवन और बाद में उपजे एकाकीपन का जिस सजीवता से इस कविता में चित्रण किया गया, वह किसी ग्रंथ से कम नहीं। मां पर लिखा गया हर शब्द ग्रंथ ही तो होता है। यही भाव प्रतिभा जी की रचनाओं को यथार्थ बनाता है। भाषा का जिक्र करें तो हिन्दी और उर्दू पर उनका समान अधिकार दिखता है।
 
" प्यार आजकल रिवाज हो गया है। " एक मुक्तक में वे साफ संदेश देती हैं कि - ‘‘जो प्यार देह की चाहत से शुरू होता है उसमें विश्वास की गुंजाईश नहीं रहती’’सच ही है यह इसे स्वीकार करते हुए प्रकट करना आसान नहीं। सच की एक बानगी और देखिए- ‘‘ याद रेत नहीं जो मुट्ठी में फिसल जाएगी।। गड़ी रहती है यह दीवालों में कीलों की तरह।।"क्या यह हकीकत नहीं? बेटी हमेशा मेरी कमजोरी रही है पर यही बेटी जब बहू बनती है, तो अपना सब कुछ समर्पित कर भी क्या वह बेटी रह पाती है अपने घर अंगना की? 
 
कितना सरल, सहज और यथार्थ चित्रण करती हैं प्रतिभा जी यहां - 
अधूरे अक्सर ख्वाब अपने छोड़ देती है,
ख्वाहिशों से भी रिश्ते सारे तोड़ लेती है,
होकर खुद फना, खुशियां औरों की ढूंढती है,
ससुराल में ‘बेटी’ जब नए नाते जोड़ लेती है।"
 
प्रतिभा जी की इस अंक में प्रस्तुत सभी रचनाएं, चाहे वे गजल हों, मुक्तक हों, या नई कविताएं, बहुत कुछ कहती हैं। इन रचनाओं में प्यार है, मनुहार है, रोमांच है, विरह है, तो रोमांस की बानगी भी देखने को मिलती है। एक ऐसा आकर्षण है इन रचनाओं में कि पढ़ने वाला किसी चुंबक की भांति उनसे चिपका रहता है। 
वे स्वयं कहती हैं ‘‘ गजब का नशा है जरा चखकर तो देखो’’ आप भी चखिए। 
 
पुस्तक : शब्दध्वज 
लेखिका : प्रतिभा सिंह परसार राठौड़ 
समीक्षक : देवेन्द्र सोनी 
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