समय की विसंगतियों से टकराने का प्रयास करती कविताओं का संग्रह 'कांक्रीट के जंगल'

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राकेशधर द्विवेदी की कविताओं का संग्रह 'कांक्रीट के जंगल' हिन्दयुग्म प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इस काव्य संग्रह में द्विवेदी ने 68 कविताएं लिखी हैं।


 
 
उनकी पहली कविता 'राम वनवास में' वे कहते हैं- 'कब मिटेगा दिलों का अंधेरा, कब होगा राम का स्वप्न पूरा'- यह यक्षप्रश्न आज भी जीवित है। अहंकार और अंधेरा असीमित है। निश्चित रूप से इस कविता के माध्यम स द्विवेदी आज के तथाकथित प्रगतिवादी समाज में रामराज्य के आदर्शों की स्थापना न होने पर चिंता जताते हैं।
 
वहीं दूसरी कविता गौरेया के हक के द्वारा वो गौरेया की संख्‍या के कम होने पर चिंता व्यक्त करते हैं। वे अंत में कविता में कहते हैं- 'मुनिया के प्रश्नों पर गुड़िया झुंझलाई' और 'मुनिया के प्रश्नों का उत्तर न दे पाएगी दुनिया' निश्चित रूप से कविता पढ़कर पाठक की चेतना एक बार गौरेया के प्रति जागृत हो जाती है। 'हे राम, तुम फिर से इस धरा पर आ जाओ' के द्वारा वे भगवान श्रीराम का आह्वान करते हैं कि वे आएं और धर्म और सत्य की पुनर्स्‍थापना कर जाएं। वहीं 'नदी को बोलने दो' कविता के माध्‍यम से वे पर्यावरण-प्रदूषण के इस दौर में नदियों के अस्तित्व पर आए संकट के प्रति सावधान करते हैं-
 
'नदी को बोलने दो, शब्द स्वरों के खोलने दो/
उसकी नीरवता-निस्तब्धता एक खतरे का संकेत है।'
 
वहीं 'पीपल की छांव' से और 'मन के द्वारे' से वो भौतिकतावादी संस्कृति के इस दौर में महानगरों में पीपल और बरगद जैसे वृक्षों पर आ रहे संकट को कैनवास पर उकेरते हैं। 
 
'कांक्रीट के जंगल' कविता के नाम पर ही काव्य संग्रह का नामकरण 'कांक्रीट के जंगल' हुआ है जिसकी ये पंक्तियां महानगरों की भौतिकतावादी संस्कृति के चरित्र को उजागर करती हैं- 
 
'मॅक्डॉवेल की बोतल में मनीप्लांट है मुस्कुरा रहा/
पास में खड़ा हुआ नीम का पेड़ काटा जा रहा।'
 
आगे वे कहते हैं कि 
 
इस अनोखे जंगल में प्राणवायु है केवल पानी/
यदि मनी है तो सब कुछ है फनी-फर्न।
 
इस कविता से बाजारवाद के इस दौर में व्यक्ति के चरित्र में जो परिवर्तन हुआ है, वह दृष्टिगत होता है वहीं पर्यावरण, मानवता, नैतिकता हाशिए पर रख दिए गए हैं।
 
याद आता है कविता बहुत ही मार्मिक है और ये आज के जीवन की सच्चाई को कैनवास पर बखूबी उकेरती है, वहीं आम आदमी की कविता में वे कहते हैं-
 
'रोज मरने की तमन्ना करके भी जो जी रहा है, वो आम आदमी है।'
 
उनकी प्रेम-कविता बड़ी देर तक गुदगुदाती है-
 
'इस कदर उसकी यादें सताने लगीं/
वो सपने में हूर बनकर आने लगी।'
 
वहीं 'आपकी खामोशियां' में वे कहते हैं-
 
'बहुत कुछ कह गईं हमसे आपकी खामोशियां/ 
दिल में आकर उतर गई आपकी खामोशियां।' 
 
'मैं गीतों का राजकुमार, तुम गजलों की शहजादी' के द्वारा वे मधुर मिलन की कल्पना करते हैं, वहीं 'सृष्टि के सुंदरतम अध्याय हैं बेटियां/ अभिव्यक्ति हैं, अनुभूति हैं, आशाएं हैं बेटियां' कह वे 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' के लक्ष्य की ओर ध्यान दिलाते हैं। 'मुझको मेरे सपने वाला हिन्दुस्तान' के माध्यम से वे सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित करने का प्रयास करते हैं। 
 
वहीं 'पापा जल्दी आ जाना' और 'संडे वाले पापा' के द्वारा वे महानगरों के एकाकीपन में बाल मनोविज्ञान का चित्रण करते हैं। काव्य संग्रह में कहीं-कहीं उर्दू शब्दों का प्रयोग हुआ, लेकिन लयबद्धता और गतिशीलता बनी रही है। भाषा अति प्रांजल, सरल और सुगम है। निश्चित रूप से ये कविताएं दिल की गहराइयों में उतरकर ठहर जाती हैं और पाठक के मानस-पटल को आंदोलित करती हैं, ऊजान्वित करती हैं और सोचने पर मजबूर करती हैं और अंत तक बांधे रखती है।
 
इस काव्य-संकलन की कविताएं समाज की सुसुप्त चेतना को जागृत करती हैं। मानवीय संवेदनाओं की जमीन पर जन्मीं ये कविताएं किसान और मजदूर के हक के लिए आवाज बुलंद करती हैं और कवि ने अपनी लेखनी द्वारा आम आदमी की भावनाओं के परवाज को पंख देने का प्रयास किया है।
 
निश्चित रूप से हिन्दयुग्म द्वारा प्रकाशित ये काव्य-संकलन 'कांक्रीट के जंगल' पाठकों के पढ़ने और संग्रह करने योग्य है। 

- समीक्षक 
 
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