डॉ. पुरुषोत्तम दुबे
कहना न होगा कि लघुकथा स्वतन्त्र एवं सम्पूर्ण विधा का दर्ज़ा प्राप्त कर चुकी है। पर लघुकथा के सम्बन्ध में एक बड़ा सवाल लघुकथा की सृजनात्मकता को लेकर है।
लघुकथा के स्वरुपगत, आकारगत, वस्तुगत और शिल्पगत आदि विशिष्टताओं को लेकर निष्कर्षों का आसमान अभी भी साफ़ नहीं है? जबकि लघुकथा स्वरूप, आकार, वस्तु और शिल्प जैसी विशिष्टताओं के कारण ही व्यापक जनमानस तक पहुंचने में सफल हुईं है।
इस मन्तव्य के आगे भी लघुकथा की दशा, दिशा और सम्भावनाओं पर केंद्रित 'लघुकथा: सृजनात्मक सरोकर' जैसी आवश्यक पुस्तक की प्रस्तुति लघुकथा जगत को देने वाले लघुकथा के सुप्रसिद्ध सृजनकार कमल चोपड़ा का कहना है कि विशिष्ट अन्तर्वस्तु के अनुरूप लघुकथा समकालीन सन्दर्भों, रूपों का अंकन पूरी तल्खी और तुर्शी के साथ जीवन और परिवेश के मुख्य मुद्दों को उठाकर उस तल्खी का एहसास पाठकों को करा रही है।'
लघुकथा की सृजनात्मक अवस्था के चिन्तक एवं लघुकथा पर केंद्रित विगत डेढ़ दशक से 'संरचना' नामक विशिष्ट पत्रिका निकालने वाले कमल चोपड़ा ने अपनी महत पुस्तक 'लघुकथा: सृजनात्मक सरोकार' में लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया के साथ समकालीन लघुकथा में संघर्ष चेतना, नवीनता की तलाश, साहित्यिकता, समसामयिक परिवेश और मानवीय स्थितियों का अन्वेषण सरीखे गहन बिन्दुओं पर तफ़सील से चर्चा की है।
लघुकथा में यथार्थ निरूपण के संदर्भ में विभिन्न मत-मतान्तर गाहे-बगाहे सामने आ रहे हैं। इस सम्बन्ध में लघुकथा में यथार्थ निरूपण की स्थिति को लेकर कमल चोपड़ा ने अपनी अन्वेषण दृष्टि के आधार से बात रखी है कि 'लघुकथाओं में मूल यथार्थ ज्यों का त्यों न आकर कलात्मक यथार्थ में रूपांतरित होकर आता है।
वह घटना का महज़ विवरण या रिपोर्टिंग न होकर रचनात्मक यथार्थ है, यही रचनाकार की कलात्मक सिद्धि का प्रमाण भी है'
लघुकथा के क्षेत्र में वर्तमान समय में सतही लेखन पर्याप्त हो रहा है। शायद इस वज़ह से कि जिस प्रकार समय की कमी के कारण पाठकों ने लघुकथा पठन के पक्ष में अपना अभिमत देकर लघुकथा विधा को पोषित करने में अपना समर्थन दिया है, यही बात आज के लघुकथा लेखक के साथ भी जुड़-सी गईं हैं। क्योंकि अधिकांश देखा गया है' पाठक में से ही लेखक बनते हैं।'
यानी पाठकवर्ग की तरह समय के कम पड़ने का अहसास लघुकथाकार को भी है। लिहाजा आज के दौर में ज़्यादातर ताबड़तोड़ लघुकथाएं लिखीं जा रही हैं।
इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि 'फार्मूलाबद्ध' लघुकथाएं पटल पर आने लगी हैं। इस विचार पर टिप्पणी करते हुए कमल चोपड़ा ने बड़ी बेबाक बात की है। वे कहते हैं, सतही लेखन की भरमार का मसला साहित्य की कमोबेश सभी विधाओं में हैं, लेकिन सतही लेखन लघुकथा में एक बड़ी समस्या का रूप ले चुका है?'
उद्देश्यपूर्ण लघुकथा को ही सार्थक लघुकथा कहा जा सकता है। लघुकथा की सही ज़मीन कथापन ही है। सार्थक शिल्प के प्रयोग से इस कथापन को उभारा जा सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक में एक स्थान पर ग्रामीण परिवेश एवं ग्रामीण जीवन पर केन्द्रित लघुकथाएं लिखने की बात भी बड़ी शिद्दत के साथ कमल चोपड़ा रखते हैं।
दरअसल आज की एक बड़ी आवश्यकता ग्रामीण जन- जीवन की समस्याओं में झांकने की व उन समस्याओं का अभिलेखन लघुकथा में करने की है। लघुकथाकार का धर्म है कि वे ग्रामीण अंचलों की पृष्ठभूमि को लेकर वहां की समस्याओं को दृष्टिसम्पन्नता के साथ देखें तथा उन समस्याओ को अपनी लघुकथाओं की अन्तर्वस्तु के रूप में तरजीह दें।
प्रस्तुत पुस्तक 'लघुकथा: सृजनात्मक सरोकार 'लघुकथा की रचनात्मकता के विविध पहलुओं पर चर्चा करती है। लघुकथा की रचनात्मक समझ के साथ ही लघुकथा की आलोचना विषयक अनेक महत्वपूर्ण बातों पर विस्तारपूर्वक चर्चा करने वाली यह पुस्तक लघुकथा पर शोध करने वाले विश्वविद्यालयीन छात्रों के लिए अभूतपूर्व सन्दर्भ ग्रन्थ की कमी को भी पूर्ण करने वाली, दिशा-बोध कराने वाली ज़रूरी पुस्तक है। इस पुस्तक के रचनाकार कमल चोपड़ा को शतशः बधाई।
पुस्तक : लघुकथा : सृजनात्मक सरोकार
लेखक : कमल चोपड़ा
प्रकाशक : दिशा प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य : 400 रुपये
समीक्षक : डॉ.पुरुषोत्तम दुबे, इन्दौर