अज्ञेय के बहाने पत्रकारिता के सरोकार

पुस्तक समीक्षा

Webdunia
कुमार नरेन्द्र सिंह
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' पत्रकारिता के युग निर्माता' श्रृंखला के अंतर्गत सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' के पत्रकारिता कर्म पर रमेशचंद्र शाह द्वारा लिखित पुस्तक 'स. ही. वात्स्यायन 'अज्ञेय' ' यूँ तो कोई नई जमीन नहीं तोड़ती लेकिन इतना जरूर है कि इस पुस्तक के जरिए अज्ञेय के पत्रकारिता के सरोकार समझने में मदद मिलती है। रमेशचंद्र शाह ने शोध करके पाठकों के सामने जो परोसा है वह निश्चित रूप से प्रशंसा योग्य है।

वैसे जहाँ तक उनके इस शोध की बात है तो कई लोगों को नागवार भी गुजर सकता है कि इसमें शोध कम और प्रशंसा ज्यादा दिखाई देती है। पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद कहीं कुछ नई जानकारी नहीं मिलती। कहा जाए को बासी जानकारियों को शोध के नाम पर पाठकों को परोस दिया गया है।

अगर गैर-परंपरागत रूप से देखें तो अज्ञेय एक विद्रोही नजर आते हैं और इनका यह रूप साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता में भी दिखाई देता है। वह किसी का मुँह देखकर या उसकी इच्छा-अनिच्छा के संदर्भ में अपने विचार नहीं बनाते, न बने हुए विचार छुपाते हैं। अज्ञेय के साहित्यकार और पत्रकार पक्ष से जब हमारा साक्षात्कार होता है तो जल्दी ही समझ आ जाता है कि उनके सरोकार को किसी की सहमति की दरकार नहीं है। वह जैसा सोचते, समझते हैं, वैसा ही अभिव्यक्त भी करते हैं।

आप चाहें तो उनकी इस समझदारी को उनकी प्रतिबद्धता, सरोकार या कुछ और भी कह सकते हैं। परंतु मूल रूप से यह उनकी वैचारिक ईमानदारी ही है। उनका पत्रकारीय जीवन वास्तव में अपनी ईमानदारी और प्रतिबद्धता पर टिके रहने की अकथ कहानी है जो भविष्यगर्भा पत्रकारों के लिए युगों-युगों तक उनके अंधेरे मन को उजास बनाए रखेगा।

अज्ञेय जी ईमानदारी को बहुत मान देते हैं। उनके इस कथन कि 'साहित्यकार रूप स्रष्टा है, उपदेशक नहीं। उसके सिरजे रूप से अगर समाज की संवेदना का संस्कार होता है या कोई नया आयाम खुलता है तो वही उसकी उपलब्धि होती है,' में वास्तव में उनका स्वयं का व्यक्तित्व ही प्रतिबिंबित होता है। उनका यह कथन न सिर्फ साहित्य के संदर्भ में बल्कि पत्रकारिता में भी सटीक समझा जाना चाहिए।
यह जानकर थोड़ी हैरत होती है कि अज्ञेय मार्क्सवाद और लोकतंत्र को एक-दूसरे का विरोधी मानते थे। शायद इसका कारण उस समय के मार्क्सवादियों से उनकी खुली वैचारिक लड़ाई थी। इसके बावजूद अज्ञेय ने अपने अभियान में सबको जगह दी, मार्क्सवादियों को भी। 'नया प्रतीक' इसका सबसे बड़ा दस्तावेजी प्रमाण है, जहाँ घोर मार्क्सवादियों के लिए भी उन्होंने जगह रखी। इस मामले में वह व्यक्ति नहीं, संस्थान थे।

' दिनमान' जैसी पत्रिका निकालने का माद्दा अज्ञेय में ही हो सकता था। सच कहा जाए तो 'दिनमान' से हिंदी पत्रकारिता में एक नए युग का सूत्रपात हुआ था। उसके माध्यम से अज्ञेय ने भाषा का संस्कार तो दिया ही, विविध विषयों को भी विस्तार दिया। पुस्तक में एक बात खटकती है कि इसमें कहीं भी अज्ञेय के बारे में ऐसी एक भी पंक्ति नहीं लिखी गई है जिससे आलोचना की ध्वनि निकले। अज्ञेय के लिए सम्मान और प्रशंसा भाव ही पुस्तक का मूल भाव है। बहरहाल, छह अध्याय समेटे यह पुस्तक पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी हो सकती है।

पुस्तक : स. ही. वात्स्यायन 'अज्ञेय'
लेखक : रमेशचंद्र शाह
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
मूल्य : 150 रुपए

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