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अस्पताल के बाहर टेलीफोन

यथार्थ की निशानदेही करती कविताएँ

Webdunia
ओम निश्चल
ND
अपने कविता संग्रह 'स्त्री मेरे भीतर' में स्त्री संसार की पेचीदा सामाजिक स्थितियों का जायजा लेने के बाद पवन करण अब 'अस्पताल के बाहर टेलीफोन' संग्रह के साथ फिर कविता की जानी-पहचानी सरणियों की ओर लौटे है लेकिन यहाँ भी पराई औरत के सान्निध्य में रहते पिता और पिता की आँखें जैसे विषयों पर मार्मिक कविताएँ संजोई गई हैं।

पवन करण के कवि ने यहाँ कविता की रूढ़ियों और खुद अपनी ही बनाई कंडीशनिंग से मुक्ति का रास्ता खोजा है तथा जीवन की उन अभागी, अपरिहार्य और दुः सह् य परिस्थितियों को कविता के केंद्र में रखा है जिनसे प्रायः कवियों की निगाह फिसल जाती है। उन्होंने यथार्थ की उन बारीकियों में धँसने का उपक्रम किया है जिनसे गुजरकर ही कोई कविता कोई पदावली अपने समय की चहेती, कंठसिद्ध उक्ति बनकर चरितार्थ होती है।

अस्पताल के बाहर टेलीफोन, बँटवारा, पिता की आँखें, साइकिल, मुमुक्षु भवन, उधारी लाल, अधिकारी कवि, स्कूटर, रिश्तेदार, देहाती दीवान, बाजार, दूल्हे के दोस्त तथा हिंदू ऐसी कवित ाए ँ हैं जिनका विजन और स्पेक्ट्रम बड़ा है। कवि की चौकस निगाहों के दायरे ने न तो अस्पताल के बाहर टेलीफोन के इर्द-गिर्द का माहौल ओझल है, न मुमुक्षु भवन में मोक्ष की कामना में समय बिताते नियतिवादी जनों के हालात, और अधिकारी कवि का जलवा तो ऐसा कि जैसे आधिकारिक वर्चस्व की सत्ता से ही साहित्यिक सफलताओं के सारे दरवाजे खुलते हों।

रिश्तेदार किनके यहाँ नहीं आते, पर आते हैं तो अतिथि देवो भव की अवधारणा को मुँह चिढ़ाते हुए। हम उनसे किस तरह पेश आते हैं- यह कविता मौजूदा समय में अतिथियों के प्रति बदलती धारणा की सीवन उधेड़ती है। दूल्हे के दोस्त जैसे कुछ मौलिक अधिकार लेकर प्रकट होते हैं। शादी-ब्याह के मौके पर उनकी हरकतें देखते ही बनती हैं। पवन करण ने इन कविताओं में यथार्थ की निशानदेही की है और तमाम चरित्रों को एक-एक पृष्ठ की तरह उलटा-पलटा है।

पिछले वर्षों में हिंदुत्व और तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जितना ढिंढोरा पीटा गया है, उससे इन पदों का अर्थ संकरा हुआ है। एक धर्मनिरपेक्ष कवि के लिए ही नहीं, एक धर्मनिरपेक्ष नागरिक के लिए भी आज हिंदू होने पर गर्व करना और तथाकथित राष्ट्रवाद की दुहाई देना वाकई शर्म की बात है।

पवन की हिंदू कविता हिंदू होने पर गर्व करने वाली हिंदू जमात के लफ्जो ं में धर्म और संस्कृति के विकृत ह ोत े फैब्रिक पर नजर डालती है। बँटवारा कविता के बहाने हमारे दिलों में माँ-पिता के लिए लगातार कम होती जगह की पड़ताल की गई है। बँटवारा कविता पढ़कर समाज किस तरफ जा रहा है, इसकी भनक हमें मिलती है।

हम कितने ओछे हो गए हैं कि आज माँ को भी खानों में बाँट दिया है पर उनके मरने पर उनके पैरों की चाँदी की कड़ियाँ किसके हिस्से में होंगी, बेटों को इस बात की चिंता जरूर है। पवन करण सूक्तियों और उद्धरणों के कवि नहीं हैं। उनके यहाँ उद्धरण ढूँ ढना बेमानी है। वे अपने नैरेटिव को भरसक एक मार्मिक आख्यान में बदलने की चेष्टा करते हैं और बहुधा उनकी कविताएँ हमारे अंतःकरण में बजते मानवीय स्वर को समर्थन देती हैं।

पतन, क्षरण, भौतिकता, पूंजी, निर्मनुष्यता और बाजार के बदलते चेहरे को पवन करण ने पहचाना है और बाजार-बाजार न चिल्लाते हुए भी उस कारोबारी दिमाग की शल्यपरीक्षा की है जो हमारे पारस्परिक संबंधों और जीवनशैली में घुस गया है। अस्पताल के बाहर टेलीफोन उन पाठकों के लिए बेहतरीन संग्रह है जो सूत्रों और उद्धरणों से ऊब चले हैं और आख्यान, नैरेटिव व किस्सागोई का एक नया आस्वाद चखना चाहते हैं।

पुस्तक : अस्पताल के बाहर टेलीफोन
कवि : पवन करण
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
मूल्य : 150 रुपए

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