' परदेस के पेड़' निबंधकार श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय का ललित निबंध संग्रह है। पूर्व प्रकाशित निबंध संग्रह की तरह ताजगी से पूर्ण और कोमल भावों से तराशा हुआ।
उपाध्यायजी के निबंध की एक नहीं कई विशेषताएँ हैं। जैसे उनमें गति है, लय है, विविधता है, फिर भी वे कभी एकरस नहीं होते। हर निबंध में एक आकर्षक प्रवाह है। इतना आवेगमयी कि पाठक सम्मोहित सा बहने लगता है।
पुस्तक में 21 निबंधों का संग्रह है। इनमें निरंतर बदलते समाज की विडंबनाओं का सटीक चित्रण है। पूरी तन्मयता से रचे इन निबंधों में पाठक अपने ही मन की अनुगूँज को तराशे हुए रूप में सुनता है।
' परदेस के पेड़' इस शीर्षक में ही वह आकुलता है जो परदेसी होकर देसी पेड़ अनुभूत करते हैं। इस प्रतिनिधि निबंध में लेखक ने अप्रवासी भारतीय मर्म को गहराई से स्पर्श किया है। जैसे -
' परदेस में मैंने देखा इन पेड़ों को और उनकी पीड़ा को भी। ये पेड़ यों तो वहाँ बड़े हरे-भरे दिखाई देते हैं लेकिन वास्तव में हैं बड़े उदास, अपनी मिट्टी से बिछड़े हुए एकांती जीव।'
उपाध्यायजी के निबंध की एक नहीं कई विशेषताएँ हैं। जैसे उनमें गति है, लय है, विविधता है, फिर भी वे कभी एकरस नहीं होते। हर निबंध में एक आकर्षक प्रवाह है। इतना आवेगमयी कि पाठक सम्मोहित सा बहने लगता है।
यह निबंध लेखक के ऑस्ट्रेलिया प्रवास के दौरान जन्मा। इसलिए परदेस की पीड़ा इतनी सघन होकर उभर सकी। वे लिखते हैं - ' देश और परदेस के बारे में सोचते-सोचते लगा कि ऑस्ट्रेलिया में मैंने अपने देश के ही ऐसे लोग देखे हैं जो परदेस के पेड़ हो गए। यहाँ जन्मे, पले, बढ़े और 30-35 बरस गुजारने के बाद विदेश में बस गए... मुझे लगा ये पेड़ वहाँ जम जरूर गए हैं लेकिन इनकी जड़ों को वहाँ की मिट्टी रास नहीं आ रही।
जड़ों ने वहाँ की मिट्टी से जल खींचकर अपने तनों को जीवंत बने रहने की ऊर्जा और शक्ति जरूर दी है लेकिन ये जड़ें यह कर्तव्य बड़े बेमन से निभा रही हैं।'
यह गहरा सच परदेस के पेड़ भीतर तक महसूस करते हुए भी अभिव्यक्ति का जोखिम नहीं उठा पाते जिसे लेखक ने संवेदना और संवाद के संयोजन से पन्नों पर सजा दिया। उपाध्यायजी की लेखनी का करिश्मा है कि पहले निबंध की पहली पंक्ति ही पाठक को इस कदर बाँध लेती है कि उन्हें पढ़ते रहने की प्यास हर निबंध के साथ बढ़ती जाती है।
लेखक सिर्फ 'प्यास' का बोध ही नहीं कराते बल्कि 'झरना' भी उपलब्ध कराते हैं। उन्हें पढ़ते हुए लगता है भीतर ही भीतर एक सच्चा और भोला मन, जो जीवन की आपाधापी में कहीं झुलस गया है। वह फिर जन्म ले रहा है।
परदेस में मानवीय रिश्तों की पड़ताल करते हुए वे एक निबंध में लिखते हैं - ' यहाँ सुविधाओं के लिहाज से सुख और दु:ख हैं जबकि हमारे यहाँ सुख और दु:ख को परिभाषित करने के लिए सुविधाएँ एकमात्र पैमाना नहीं है।
यहाँ उस भाव-आकुलता का अभाव है। ऐसी आकुलता जो रिश्तों को मजबूती से जोड़ती है। यहाँ (ऑस्ट्रेलिया में) रिश्ते तो हैं, लेकिन वे ऐसी संवेदनशीलता की रस्सी से बँधे हैं जो बार-बार टूटती है। ...और इसे जोड़ने के जतन नहीं होते। यह टूटी हुई रस्सी अपने पहले सिरे से जुड़ने का यत्न नहीं करती। नए सिरे ढूँढती है। नए सिरों से जुड़ती है, फिर टूटती है।'
आत्मीयता और परदेस की पीड़ा की नर्म-नर्म आँच में रचे-पके ये ललित निबंध एक अनूठे संतोष का अनुभव कराते हैं। हर उस पाठक को पुस्तक अवश्य पढ़ना चाहिए जो 'परदेस' के 'पेड़' हो गए हैं।
पुस्तक - परदेस के पेड़ लेखक - नर्मदा प्रसाद उपाध्याय प्रकाशक - प्रवीण प्रकाशन मूल्य - 150/-